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________________ जैनधर्म का प्रसार चार्य थे।' इस युग में श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में आपसी वैमनस्य के भी उदाहरण मिलते हैं। बप्पभट्टिसूरि ने गिरनार तीर्थ को दिगम्बरों के अधिकार से मुक्त किया । ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में इस क्षेत्र में दिगम्बर जैनों की पूर्व की अपेक्षा संख्या अधिक थी। बढवाण उनका प्रमुख केन्द्र था। दिगम्बर साहित्य की प्राचीनतम संस्कृत रचनायें जिनसेनकृत हरिवंशपुराण ( ई० सन् ७८३ ) और हरिषेणकृत बृहत्कथाकोष ( ई० सन् ९३१-३२) बढवाण में ही रचे गये। जिनसेन और हरिषेण पुन्नाटसंघ के आचार्य थे। सोलंकी युगमें तो राजाओं के साथ-साथ मन्त्रियों, श्रेष्ठियों, व्यापारियों आदि ने भी जैन मंदिरोंको भूमिदान दिया तथा उनके द्वारा मंदिरों, चैत्यों, वसतियों-उपाश्रयों आदि का निर्माण एवं जीर्णोद्धार कराया गया। श्रावकों द्वारा बड़ी संख्या में जिन प्रतिमाओं का निर्माण एवं संघ के साथ तीर्थों की यात्रायें की गयीं। सोलंकी राजा स्वयं तो शैवधर्मावलम्बी थे, परन्तु उन्होंने जैन धर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धाभाव प्रदर्शित किया और जैन आचार्यों का अपने दरबार में बहुत सत्कार किया। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि जैन आचार्यों के प्रभाव के कारण ही राजकुल के कई सदस्यों ने जैन मुनि की दीक्षा ग्रहण कर ली। चौलुक्य नरेश मूलराज 'प्रथम' (ई० सन् ९४१-९९६) के वि० १. बेलानी, फतेहचन्द-जैनग्रन्थ और ग्रन्थकार [वाराणसी १९५२ ई.] पृ० ४९ और आगे २.. बप्पट्टिसूरिचरितम् --प्रभावकचरित [सं०-मुनिजिनविजय, कलकत्ता, १९४० ई०] पृ० ८०.१११ ३. परीख और शास्त्री, पूर्वोक्त, भाग ३, पृ० २५२ ४. द्रष्टव्य-हरिवंशपुराण [सं०-पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, वाराणसी १९६२ ई०] की प्रशस्ति ५. बृहत्कथाकोश [सं० -आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, बम्बई-१९४३ ई०] की प्रशस्ति ६. परीख और शास्त्री-पूर्वोक्त, भाग, ४, पृ० ३६९ ७ वही, पृ० ३७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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