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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
यह अभिलेख परम्परागत जैन वाक्य ' णमो अरिहंताणं' से प्रारम्भ होता है । लेख में इन्द्ररक्षित नामक एक साधु द्वारा जलाशय के निर्माण कराने का उल्लेख है । इन्द्ररक्षित के गण, कुल और शाखा का कोई उल्लेख प्राप्त नही होता ।
जैसा कि पहले हम देख चुके हैं २२ वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ का सम्बन्ध उज्जयन्तगिरि से है । उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख हमें जैन आगम ग्रन्थ ज्ञातृधर्मकथा में प्राप्त होता है । यह ग्रंथ ईसा पूर्व की शताब्दियों में रचा माना जाता है। जैसा कि आधुनिक युग के अधिकांश विद्वानों का मत है कि अन्तिम दो तीर्थङ्कर-पार्श्वनाथ और महावीर ही ऐतिहासिक महापुरुष थे, शेष सभी काल्पनिक | परन्तु यह विचारणीय है कि शेष २२ तीर्थङ्करों की कल्पना भी महावीर के निर्वाण के प्रायः तुरन्त बाद ही उत्पन्न हुई होगी । नेमिनाथ को २२ वें तीर्थंकर के रूप में स्थान देने में जैनों ने अत्यन्त बुद्धिमत्ता- पूर्वक काम लिया । उन्होंने समकालीन ब्राह्मणीय (वैष्णव ) परम्परा, जो उस समय पश्चिमी भारत में कृष्ण-वसुदेव के सम्बन्ध में प्रचलित रही, उनसे नेमिनाथ का समकालिक सम्बन्ध जोड़कर उन्हें २२ वें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित कर लिया ।
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० सन् की प्रथम शताब्दी में भी इस क्षेत्र में जैन धर्म भलीभांति फूलता - फलता रहा । षट्खण्डागम के टीकाकार वीरसेनाचार्य के अनुसार वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष पश्चात् श्रुतज्ञानी आचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा में धरसेनाचार्य हुए। वे गिरिनगर ( वर्तमान गिरनार ) की चन्द्रगुहा में रहते थे। वहीं उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि नामक शिष्यों को बुलाकर श्रुतज्ञान से परिचित कराया, जिसके आधार पर उन्होंने द्रविण देश में जाकर खट्खण्डागम की सूत्र रूप में रचना की ।' जूनागढ़ के समीप प्राचीन जैन गुफाओं का पता चला है, जो आज बाबाप्यारामठ' के नाम से प्रसिद्ध है । इनमें से एक गुफा से एक खण्डित शिलालेख मिला है, जो क्षत्रपवंशीय राजा जयदामन १. (i) शास्त्री, कैलाशचन्द्र – जैन साहित्यकाइतिहास, भाग १, पृ० ५-७ (ii) शास्त्री, बालचन्द्रद्र- षट्खण्डागम-परिशीलन ( नई दिल्ली १९७८ ई०) पृ० २-३
२. घोष, ए० – जैन कला और स्थापत्य, खण्ड १, पृ० ९३-९४
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