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जैनधर्म का प्रसार
ने लोकविभाग की रचना की। प्रारम्भिक पांड्य शासकों ने भी जैन धर्म को सहयोग प्रदान किया था । कांची और मदुरा जैन धर्म के 'प्रमुख केन्द्र थे। तथापि कुछ उदाहरणों को छोड़कर परवर्ती पल्लव
और पांड्य नरेशों ने शैव धर्म के प्रभाव में आकर जैन धर्म के प्रति द्वेषपूर्ण नीति अपनाया ।३ चोल राजवंश के शासकों ने भी जैन समाज और धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की। चोल नरेश राजराज-प्रथम । ई० सन् ९८५-१०१४ ) की बड़ी बहन ने राज्य के "विभिन्न भागों में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया और इस प्रकार जैम धर्म की उज्ज्वल कीर्ति को विस्तृत करने का प्रयास किया। तथापि पल्लव, पांड्य और चोल राजवशों पर जैन धर्म अपना पूर्णप्रभाव कायम करने में कभी भी सफल न हो सका । अनन्तपुर, बेल्लारी, गुन्टुर, कृष्णा, कर्नूल, नेल्लोर, उत्तरी आर्काट, दक्षिण कनारा और विशाखापत्तनम् आदि स्थानों से जैन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।६ इनसे स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण दक्षिण भारतवर्ष में लगभग एक हजार से अधिक वर्षों तक दिगम्बर जैन धर्म का बड़ा प्रभाव रहा और श्रवणबेलगोला उनकी गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र था। वैष्णव और शैव धर्मों के बढ़ते हए प्रभाव से दक्षिण भारत में जैन धर्म को बड़ी क्षति उठानी पड़ी तथा इन प्रदेशों में रहने वाले कुछ जैन धर्मावलम्बी तो दूसरे स्थानों पर चले गये और कुछ ने शैव और वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया।
ई० सन् की चौदहवीं शताब्दी के मध्य विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के समय जैन धर्म तमिल, तेलुगू और कर्णाटक में अपने पूर्व स्थान से च्युत हो चुका था। जैन धर्म के लिये यह महान् संकट का समय था । ऐसे समय में विजयनगर ने जैन धर्म के संरक्षक १. देसाई, पी०बी०-जैनिज्म इन साउथ इण्डिया (शोलापुर, १९५७ ई०)
प० ४८-४९ । २. वही, पृ० ३३, ५५ । ३. देव, एस० बी०-पूर्वोक्त, प० १३०-१३१ । ४. देसाई-पूवोंक्त, प० ७८ । ५. वही ६. संघवे-पूर्वोक्त, पृ० ३८३ ।
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