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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन ४३ प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किया।' राष्ट्रकटों के पश्चात् दक्षिण भारत में पश्चिमी चालुक्यों का अधिपत्य स्थापित हुआ। उन्होंने भी गंग, कदम्ब, बादामी के चालक्यों और राष्ट्रकटों की भांति ही जैन धर्म के प्रति उदार नीति अपनायी ।२ जिस प्रकार ई० सन् की दूसरी शताब्दी में गंग राजवंश की स्थापना एक जैन आचार्य के सहयोग से हुई थी, उसी प्रकार से ११वीं शती में होयसल और काकतीय राजवंशों की नींव भी जैन आचार्यों के सहयोग से ही डाली जा सकी। दक्षिण के अन्य छोटे-छोटे राजवंश-कल्याणी के कल्चुरी, पुन्नाट के प्रारम्भिक चौगाल्व और कोगाल्व आदि ने भी जैन धर्म को स्वीकार किया था। इसी प्रकार बेलगाम और सुन्दन्ती के रट्ट और कोल्हापुर के शिलाहार भी जैन धर्मावलम्बी माने जाते हैं।" जहां तक सुदूर दक्षिण का प्रश्न है, प्राचीन तमिल साहित्य ( संगम साहित्य ) जैन सिद्धान्तों और विचारों के अनुकूल ही लिखा गया है। सामान्य रूप से पल्लवकालीन माने जाने वाले ग्रन्थों यथा 'शिल्लप्पदिकारम्' आदि पर भी जैन धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। ____जहां तक पल्लवों का प्रश्न है, वे ब्राह्मणीय धर्मावलम्बी थे, परन्तु हमारे पास ऐसे भी उदाहरण हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनके शासनकाल में भी जैन धर्म उन्नत दशा में विद्यमान रहा । दिगम्बर जैनाचार्य वज्रनन्दि द्वारा वि० सं० ५२६ में दक्षिण मथुरा (मदुरा) नगरी में द्रविण संघ की स्थापना की गयी। पल्लव नरेश सिंहवर्मा (ई० सन् ५५०-५७५) के शासन काल के २२वें वर्ष में सिंहनन्दि. १. संघवे, पूर्वोक्त पृ० ३८२ । २. वही। ३. चौधरी, गुलाबचंद-पूर्वोक्त, प० ९९-१०१ । ४. द्रष्टव्य-इसी ग्रन्थ के अन्र्तगत-"आमरकुण्डपद्मावतीदेवीकल्प." ५. संघवे-पूर्वोक्त, पृ० ३८२-८३ । ६. प्रवचसार-प्रस्तावना, पृ० २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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