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________________ ४२ जैनधर्म का प्रसार और लगभग डेढ़ हजार से भी अधिक वर्षों तक ( ई० सन् की १४वीं शती तक ) दक्षिण भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका' निभाता रहा।' जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने आन्ध्र, द्रविण, महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। मौर्यों के पश्चात् दक्षिण भारत में सातवाहन उनके उत्तराधिकारी हुए। उत्तरकालीन जैन परम्परा में सातवाहनों पर भी जैन प्रभाव स्वीकार किया गया है।२ गंग राजवंश की नींव प्रसिद्ध जैन आचार्य सिंहनन्दि के सहयोग से ही डाली जा सकी थी। इस राजवंश के सभी शासक जैन धर्मानुयायी थे। कदम्ब राजवंश के नरेश यद्यपि ब्राह्मणीय धर्मावलम्बी थे, परन्तु इस वंश के कुछ शासक जैन धर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धा रखते थे, जिससे उनके साम्राज्य में जैन धर्म का प्रचार हुआ और वहां यह धर्म लोकप्रियता प्राप्त कर सका। वादामी के चालुक्यों के शासन काल में जैन धर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा।५ इस राजवंश के कई राजाओं जिनमें पुलकेशिन द्वितीय ( ई० सन् ६०९-६४२ ) भी था, ने जैनाचार्यों को प्रश्रय दिया। राष्ट्रकटों का शासन काल जैनधर्म के दक्षिण भारत में प्रसार के इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस वंश के कई नरेशों ने जैन धर्म को प्रश्रय प्रदान किया। राष्ट्र कट नरेश अमोघवर्ष 'प्रथम' ( ई० सन् ८१४-८७८ ) तो जैन धर्म का प्रबल समर्थक था।' राष्ट्रकूटों के सामन्तों ने भी अपने अधिशासकों की प्रेरणा से जैन धर्म को १. संघवे, विलास आदिनाथ-जैनकम्यूनिटी ( बम्बई १९५९ ई० ), प० ३८१ । २. देव, एस० बी०-पूर्वोक्त पृ० ९८ । ३. चौधरी गुलाबचंद-जनशिलालेखसंग्रह भाग-३ (बम्बई-१९५७ ई.) पृ० ७५ और आगे । ४. वही, पृ० ८१ और आगे । ५. वही, प० ८५ और आगे । ६. वही, पृ० ८६-८७ । ७. वही, प० ९४ और आगे । ८. वही, पृ० ९७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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