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-जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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विशेषकर व्यापारी वर्ग में लोकप्रिय रहा और जैनों को अपने धार्मिक क्रियाकलापों में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी । समय-समय पर जिनालयों एवं जिनप्रतिमाओं के निर्माण आदि में उन्हें राजकीय सहयोग भी प्राप्त होता रहा ।
ई० सन् की बारहवीं शती के अन्तिम दशक में उत्तर भारत के एक बड़े भाग पर मुस्लिम शासन आरम्भ हो जाने पर यहाँ की पूर्ववर्ती जीवनपद्धति, परम्परायें, सौन्दर्य-दृष्टिकोण तथा कलात्मक मूल्यों की उपेक्षा हुई और एक नई संस्कृति के मापदण्ड तथा कला के एक नये क्षेत्र का विकास हुआ; जिसके अनुरूप हिन्दुओं एवं जैनों ने स्वयं को ढालने का प्रयास किया। मुस्लिम शासन काल के प्रथम चरण में देश में जनसाधारण का सांस्कृतिक जीवन अस्त-व्यस्त रहा । इस युग में भ्रमणशील मुनि ही वैचारिक आदान-प्रदान के माध्यम थे । परन्तु यह विषम स्थिति अधिक समय तक न रही और शासक तथा शासित वर्ग के मध्य परस्पर सद्भाव स्थापित हुआ जिससे उत्तर भारत के 'विभिन्न भागों विशेषकर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में अनेक सुन्दर-सुन्दर जिनालयों का निर्माण संभव हुआ । ' दक्षिण भारत में जैनधर्म
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रवेश के सम्बन्ध में अधिकांश विद्वानों की प्रायः यही धारणा है कि मगध में १२ वर्षीय दुष्काल पड़ने पर आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन भिक्षुओं का एक दल, जिनमें मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भी थे, दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान किया और श्रवणबेलगोला पहुँचा । वहीं से जैन धर्म दक्षिण भारत के अन्य भागों में फैला । कुछ विद्वानों के अनुसार दक्षिण भारत में तो जैन धर्म भद्रबाहु के वहां जाने के पूर्व भी विद्यमान था और भद्रबाहु के नेतृत्व में श्रमणों ने वहां जैन धर्म के प्रसार में एक नई स्फूर्ति ला दी । जो भी हो यह तो निश्चित है कि ईसा पूर्व की तीसरी शती में जैन धर्म दक्षिण भारत में विद्यमान था १. विस्तार के लिये द्रष्टव्य - घोष, अमलानन्द — पूर्वोक्त, खंड २, पृ० २४१ और आगे ।
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२. राव, बी० शेषगिरि - स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म, भाग-२ ( पुनर्मुद्रण, दिल्ली १९८८ ई० ) पृ० ३ ।
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