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________________ Y . जैनधर्म का प्रसार __ नाडोल के चाहमानों ने भी जैनधर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया। इस वंश के शासकों ने अपने राज्य में कुछ विशेष अवसरों पर पशुवध पर भी रोक लगा दिया था। राज्य की ओर से जिनालयों को प्रायः भूमि दान में प्राप्त होती रही। ब्राह्मणीय धर्मानुरागी होते हुए भी इन शासकों ने जिनालयों एवं जैनाचार्यों का सदैव सम्मान किया। गहड़वाल नरेश भी यद्यपि ब्राह्मणीय धर्मानुयायी थे, परन्तु उनके समय में भी जैन धर्म को कोई क्षति नहीं उठनी पड़ी। कौशाम्बी, मथरा, श्रावस्ती तथा अन्य स्थानों से प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाओं से स्पष्ट होता है कि इस वंश के शासन काल में भी जैन धर्म भलीभांति विकसित दशा में विद्यमान रहा। ग्वालियर और दूबकुण्ड के कछवाहों तथा त्रिपुरी के हैहयों के शासन काल में भी जैन धर्म विद्यमान रहा. यह बात इनके क्षेत्रों से प्राप्त तीर्थङ्करों तथा जैन शासन देवियों की प्रतिमाओं से सिद्ध होता ___इसी प्रकार कल्चुरी नरेश भी ब्राह्मणीय धर्मावलम्बी थे, परन्तु जैन धर्म को उन्होंने कोई क्षति नहीं पहुंचायी। इस वंश के दानशासनों में यद्यपि जैनों का कोई उल्लेख नहीं है तथापि आरंग, सिरपुर, मल्लार, धनपुर, रत्नपुर, पद्मपुर आदि स्थानों से; जो इनके साम्राज्य के अन्तर्गत स्थित थे, बड़ी संख्या में मध्ययुगीन जैन प्रतिमायें मिली हैं, अतः यह निश्चित है कि इनके साम्राज्य में भी जैन धर्म भली-भांति फूलता-फलता रहा। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि उत्तर भारत में जैन धर्म राजकीय संरक्षण के अभाव में भी एक लम्बे समय तक जन सामान्य १. जैन, कैलाशचन्द्र-पूर्वोक्त, १० २२ २. घोष, अमलानन्द- जैन कला एवं स्थापत्य, खंड २, प०२४२-२४३ ३. शर्मा, राजकुमार-पूर्वोक्त, पृ० १००-१०१ । ४. मिराशी, वासुदेव विष्णु-कल्चुरी नरेश और उनका राजत्वकाल, पृ. ९४ । एवं शर्मा, राजकुमार-पूर्वोक्त, पृ० ८०.९४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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