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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
आश्रयदाता के रूप में विख्यात रहे । यद्यपि ये ब्राह्मणीय धर्मानुयायी थे, परन्तु धार्मिक सहिष्णुता की गौरवपूर्ण नीति का पालन करते हुए इन्होंने जेन श्रमणों का सदैव सम्मान किया एवं अनेक जैन उपासकों को बिना किसी भेद-भाव के राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया । मलधारगच्छीय आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि द्वारा रचित मुनिसुव्रतस्वामीचरित ( रचनाकाल वि०सं० ११९३ / ई० सन् ११३६३७) की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज ( प्रथम ) ने रणथम्भौर के जिन मन्दिर पर स्वर्णकलश चढ़ाया था । उसके पुत्र अजयराज (ई० सन् ११०५-११३०) ने अपनी नई राजधानी अजमेर में अनेक सुन्दर-सुन्दर जिनालयों के निर्माण में अपना सहयोग दिया । अजयराज के पश्चात उसका पुत्र अर्णोराज ( ई० सन् ११३०-११५० ) गद्दी पर बैठा । धर्मघोषगच्छीय पृथ्वीचन्द्रसूरि द्वारा रचित कल्पसूत्र टिप्पन (पर्युषणकल्पटिप्पन) की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि राजगच्छीय आचार्य धर्मघोषसूरि ने शाकम्भरी के चाहमान नरेश को प्रतिबोधित किया था । इस प्रशस्ति से यह भी पता चलता है कि धर्मघोषसूरि ने दिगम्बर विद्वान् गुणचन्द्र को अर्णोराज के राज दरबार में शास्त्रार्थ पराजित किया था । इस वंश के अन्य शासकों ने भी जैन मतावलम्बियों के प्रति सहिष्णुता की नीति का पालन किया ।
१. पुहईराएण सयंभरीन रिदेण जस्स लेहेण ।
रणखंभउर जिणहरे चडाविया कयणकलसा ||४||
डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑफ मैन्युस्कृप्ट्स इन द जैन भंडार्स ऐट पाटन (संपा० चिमनलाल डाह्याभाई दलाल) पृ० ३१६ ।
षट्तकभोजबोधनदिनेशः ।
२. अभवद् वादिमदहर
श्रीधर्मघोष सूरिर्बोधितशाकंभरीभूपः ||२||
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वही, पृ० ३७
३. वादिचंद्रगुणचं द्रविजेता विग्रह क्षितिपबोधविधाता ।
धर्मसूरिरिति नाम पुरासीत् विश्वविश्वविदितो मुनिराजः ॥१६॥ वही, पृ० ३६ ।
४. जैन, कैलाशचन्द्र - जैनिज्म इन राजस्थान (शोलापुर, १९६३ ई० )
पृ० १९-२३
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