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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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विभिन्न भागों से प्राप्त अनेक जैन अवशेषों से होता है ।" इस युग यहां पाषाण और कांस्य की अनेक जिन प्रतिमाओं का निर्माण हुआ, जब कि पूरे प्रदेश पर बौद्ध धर्म छाया हुआ था । दसवीं शती के 'पश्चात् यहाँ से प्राप्त जैन अवशेषों की संख्या इसी अवधि के ब्राह्मणीय ओर बोद्ध अवशेषों की संख्या की तुलना में अत्यन्त सीमित है । इससे स्पष्ट है कि बौद्ध और ब्राह्मणीय धर्म की तुलना में जैन धर्म का निरन्तर ह्रास होता गया । इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि इस युग में इस क्षेत्र के जैन समाज में विमलशाह जैसा राज्याधिकारी अथवा वस्तुपाल - तेजपाल ऐसा श्रेष्ठी नहीं था, इसीलिये इस क्षेत्र में इस युग में जैन धर्म के संरक्षण में कला का महत्त्वपूर्ण विकास न हो सका । परन्तु उत्तरी भारत में स्थिति पूर्णतया भिन्न थी । गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने पर उनके सामन्त चन्देलों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी । चन्देल नरेश भी ब्राह्मणीयधर्मानुयायी थे, परन्तु इन्होंने जैन धर्म के विकास में प्रचुर योगदान दिया । खजुराहो और महोबा इनकी राजधानी थी, जहां अनेक सुन्दर-सुन्दर जिनालयों का निर्माण कराया गया । इसके अलावा इनके साम्राज्य के अन्य भागों यथा चन्देरी, बूढ़ी चन्देरी, सिरोंज, चांदपुर, दुधई, मदनपुर, देवगढ़ आदि स्थानों पर भी सुन्दर जिनालयों का निर्माण
9. इस सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य
(i) कल्याण के० गांगुली - जैन आर्ट ऑफ बेंगाल ।
(ii) डी० के० चक्रवर्ती - ए सर्वे ऑफ जैन एन्टिक्वेरियन रिमेन्स इन बेंगाल ।
(iii) देवा प्रसाद घोष - ट्रैस ऑफ जैनिज्म इन बेंगाल ।
उक्त तीनों लेख एक्जिविशन ऑफ जैन आर्ट सोवेनियर ( १९६४ - १९६५) में मुद्रित हैं ।
(iv) गणेश ललवानी - संपा० जैन जर्नल, जिल्द II, अङ्क ४, ( अप्रैल १९६९) पृ० १६०-६७ ॥
२. घोष, अमलानन्द - जैन कला और स्थापत्य, खंड २, पृ०२७७-७८ । ३. शर्मा, राजकुमार - मध्य प्रदेश के पुरातत्त्व का संदर्भ ग्रन्थ (भोपाल१९७४ ई०) प्रास्ताविक, पृ० ६३-७० ।
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