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________________ जैनधर्म का प्रसार स्कन्द ४ रामगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य', कुमारगुप्त 'प्रथम', गुप्त, बुधगुप्त" आदि के अभिलेखों से पता चलता है कि उनके शासन काल में ब्राह्मणीय और बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म भी बिकासोन्मुख रहा । ३४ हैं । १ गुप्तों के पतन के ५० वर्षों के पश्चात् हर्ष ने उत्तर भारत में उनका स्थान ग्रहण किया । यद्यपि वह बौद्ध धर्मानुयायी था, परन्तु जैन गृहस्थों द्वारा दिये गये दानों से ज्ञात होता है कि जैन धर्म ने इस काल में अपना अस्तित्व बनाये रखा, परन्तु उसकी स्थिति प्रायः दुर्बल ही रही । हर्ष के पश्चात् उत्तर भारत में जिन दो शक्तियों का अभ्युदय हुआ वे हैं, प्रतिहार और पाल । प्रतिहारों के अधिकार में मध्यभारत तथा उत्तर एवं उत्तर-पश्चिम भारत तथा पालों के अधिकार में पूर्वी भारत ( वर्तमान बंगाल और बिहार ) के क्षेत्र थे । इन शक्तियों में साम्राज्य विस्तार के लिये सदैव आपस में होड़ लगी हुई थी। जहां तक गुर्जर प्रतिहारों का प्रश्न है, ये यद्यपि ब्राह्मणीय परम्परा के अनुयायी थे, परन्तु उन्होंने जैन धर्म को भी पर्याप्त सहायता प्रदान की । इनके साम्राज्य के अनेक भागों में जिनालयों का निर्माण कराया गया । इस वंश के प्रसिद्ध शासक वत्सराज ( ई० सन् ७७५-८०० ) के समय १. उपाध्ये, ए० एन० – कुवलयमाला, भाग-२, प्रस्तावना, पृ० ९७-१००। २: गइ, जी०एस० - 'थ्री इंस्क्रिप्शन्स ऑफ रामगुप्त' जर्नल ऑफ द ओरियण्टल इंस्टीट्यूट, बड़ोदा, जिल्द १८ (१९६९ ई०) पृ० २४७-५१ । ३. [ अ ] पाटिल, डी०आर० - 'मानुमेन्ट्स ऑफ द उदयगिरि हिल' विक्रम वाल्यूम - पृ० ३९६ और आगे । [ब] शाह, यू०पी०, स्टडीज इन जैन आर्ट (वाराणसी, १९५५ ई० ) पृ०१४-१५ । ४ पं० विजय मूर्ति - संपा० जैन शिलालेखसंग्रह, भाग-२, लेखांक ९३ पृ० ५९ । । ५. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द xx, (१९२९-३० ई०) पृष्ठ ५९ ६०. देव, एस० बी० - पूर्वोक्त, पृ० १०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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