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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन समय मथुरा जैन धर्म का एक महान् केन्द्र था। यहां स्थित कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त ईंट निर्मित स्तूप के अवशेष, तीर्थङ्करों की प्रतिमायें, उनके जीवन की घटनाओं से अंकित पाषाणखंड, आयागपट्ट, तोरण, वेदिकास्तम्भ आदि प्रकाश में आये हैं, जो प्रायः कुषाण यूग के हैं। इनमें से अधिकांश पर लेख भी उत्कीर्ण हैं। इन शिलालेखों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज के व्यापारी तथा निम्नवर्ग के लोग बड़ी संख्या में जैन धर्म के अनुयायी थे।' इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ई० सन् की प्रारम्भिक शती में जैन धर्म कलिङ्ग, मालवा और मथुरा में अपनी स्थिति दृढ़ बनाये हुए था। गुजरात और काठियावाड़ में भी इस समय यह धर्म लोकप्रिय था, यह बात जयदामन के पौत्र रुद्रसिंह के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होती है ।
निर्ग्रन्थ धर्म के प्रारम्भिक इतिहास के उपर्युक्त सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों तक न केवल उत्तर भारत के विस्तृत भू-भाग में बल्कि दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत में भी इस धर्म का व्यापक प्रसार हो चुका था। उत्तर भारत में जैन धर्म
उत्तर भारत में गुप्त काल में भी जैन धर्म विकसित अवस्था में विद्यमान रहा। गुप्त सम्राट धार्मिक रूप से पूर्णरूपेण सहिष्णु थे । साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों स्रोतों से इसका प्रमाण प्राप्त होता है । उदाहरण के लिये कुवलयमालाकहा ( उद्योतनसूरि-रचना काल शक सं० ७००/ई० सन् ७७८) में किसी तोरमाण और उसके गुरु हरिगुप्त, जो गुप्त वंश के थे, का उल्लेख मिलता है । इस तोरमाण को प्रसिद्ध हूण नरेश तोरमाण जिसकी मृत्यु ई० सन् की छठी शती के प्रथम दशक में हुई थी, से समीकृत किया जाता है और हरिगुप्त को उस हरिगुप्त से, जिसकी ताम्रमुद्रायें मिली हैं, समीकृत किया जाता १ देव, एस० बी०-पूर्वोक्त, पृ० ९८ ।। २. वर्जेस, जेम्स-एण्टिक्विटीज ऑफ काठियावाड़ एण्ड कच्छ, प्रथम
भारतीय संस्करण, (दिल्ली, १९७१ ई०) १० १३९ तथा आगे, सांकलिया, एच० डी० –आर्कियोलॉजी ऑफ गुजरात, (बम्बई, १९४१ ई० ) पृ० ४७-५३ ।
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