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जैन तीथों का ऐतिहासिक अध्ययन
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चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसार था । उसके समय में जैन धर्म की स्थिति के बारे में कोई विवरण नहीं मिलता । बिन्दुसार का उत्तराधिकारी अशोक यद्यपि बोद्ध धर्म का अनुयायी था, परन्तु अपनी धार्मिक उदारता के कारण उसने आजीविकों और निर्ग्रन्थों (जैनों) का भी सम्मान किया । '
अशोक का उत्तराधिकारी उसका पौत्र सम्प्रति था । जैन कथानकों के अनुसार वह पूर्व जन्म से ही जैन धर्म से सम्बन्धित रहा । बृहत्कल्प- सूत्रभाष्य के अनुसार उसने आन्ध्र, द्रविण, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार किया और उन्हें जैन श्रमणों के विहार के लिये सुरक्षित बना दिया । उसके भाई शालिशुक ने सौराष्ट्र में जैन धर्म का प्रचार किया | २
प्रथम शती ईसा पूर्व में चेदिवंशीय कलिंगनरेश खारवेल ने उस प्राचीन जिन प्रतिमा को पुनः अपनी राजधानी में स्थापित किया जिसे नन्दराज लूट कर मगध ले गया था । उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट पहाड़ियों में स्थित हाथीगुम्फा से प्राप्त खारवेल का शिलालेख जैन धर्म के विषय में अत्यन्त रोचक विवरण प्रस्तुत करता है । यह अभिलेख अर्हन्तों और सिद्धों की प्रार्थना से प्रारम्भ होता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्राट् खारवेल का जैन धर्म से सक्रिय सम्बन्ध था । उसके द्वारा उड़ीसा में जैन धर्म के अत्यधिक प्रचार के कारण ही जैन धर्म वहां १२ वीं शती तक विद्यमान रह सका ।
सम्प्रति के समय से ही पूर्वी भारत में जैनधर्म का प्रभाव कम होने लगा था और मालवा तथा मथुरा में जैन धर्म ने विशेष लोकप्रियता प्राप्त की । उत्तरकालीन जैन परम्परानुसार उज्जयिनी के १. दिल्ली (टोपरा लेख
अशोक का सातवां धर्मशासन - लेख का अंतिम भाग द्रष्टव्य - जैन शिलालेखसंग्रह, भाग-२, संपा० बम्बई (१९५२ ई०) पृ० १-४; सरकार, डी०सी० - सेलेक्ट इन्सक्रिप्सन्स, पृ० ६३
२. हाथी गुम्फा का शिलालेख पं० विजयमूर्ति, संपा० जैनशिलालेख संग्रह भाग - २ लेखांक २, पृ० ४-११
३. देव, एस० बी० - पूर्वोक्त, पृ० ९३-९७
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पं० विजयमूर्ति
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