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________________ जैनधर्म का प्रसार ३० नामक स्थान से प्राप्त ई० सन् छठीं शती के अभिलेखों से भी होता है और इतिहासकारों ने इस आधार पर दिगम्बर परम्परा को प्रामा'णिक मान लिया है । फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ आपत्तियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है १ - केवल दिगम्बर परम्परा में ही चन्द्रगुप्त मौर्य को जैनमतावलम्बी बतलाया गया है । श्वेताम्बर परम्परा में भी यद्यपि इस राजा का उल्लेख है, परन्तु उसे कहीं भी जैन धर्म से सम्बन्धित नहीं बतलाया गया है । १ २ - चन्द्रगुप्त मौर्य के समय तक निर्ग्रन्थ (जैन) संघ का श्वेताम्बर और दिगम्बर आम्नायों में विभाजन नहीं हुआ था । यदि उक्त शासक ने निर्ग्रन्थ धर्म स्वीकार कर लिया होता तो दोनों परम्पराओं में उसका उल्लेख अवश्य होता । ३ ३ - चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने वाले विदेशी राजदूतों ने निर्ग्रन्थ श्रमणों का उल्लेख तो किया है, परन्तु यह कही नहीं बतलाया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अन्तिम समय निर्ग्रन्थ श्रमण हो गया था । उपरोक्त आधारों पर चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में प्रचलित दिगम्बर मान्यता की ऐतिहासिकता संदिग्ध लगती है । उद्देसओ अण्णस्स खंडं, एवं संघाडितेहि एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिट्टिवादोनत्थि, नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुस्सामी अच्छंति चोद्दसपुब्वी, वेसि संघेणं पत्थवितो संघाडओ दिट्टिवादं वाएहित्ति, गतो, आवश्यकचूर्णी - भद्रबाहु ( रतलाम ई० सन् १९२७ - १९२९) ******* | उत्तरभाग, पृ० १८७ १. आवश्यकचूर्णी, पूर्वभाग, पृ० ५६३-५६५; दशवैकालिकचूर्णी, पृ० ५१, ८१; २. निर्ग्रन्थ श्रमणसंघ का दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नाय में विभाजन का काल वीर निर्वाण के ६०० वर्ष पश्चात अर्थात् ई० सन् की प्रथम शताब्दी माना जाता है द्रष्टव्य-जैन, हीरालाल, पूर्वोक्त, पु० ३१ ऑफ इण्डिया, ३. मजुमदार, आर० सी० - क्लासिकल एकाउन्ट्स पृ० ४२५ और आगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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