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अध्याय-३
जैनधर्म का प्रसार : ऐतिहासिक सर्वेक्षण
(कल्पप्रदीप) विविधतीर्थकल्प की तीर्थविषयक सामग्री के समुचित मूल्यांकन के लिये इस ग्रन्थ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और जैन धर्म के प्रसार का अध्ययन आवश्यक है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है जिनप्रभसूरि चौदहवीं शताब्दी के एक जैनाचार्य थे और संभवतः मरुदेश ( राजस्थान ) के निवासी थे। इनके ग्रन्थ की तत्कालिक और वास्तविक पृष्ठभूमि तो इस क्षेत्र में प्रायः चौलक्य और चाहमान राजाओं के शासन काल में भलीभांति प्रतिष्ठित जैन धर्म का इतिहास है, जो बाद की शताब्दियों में भी विकासोन्मुख रहा । परन्तु ग्रन्थकार ने ऐसे अनेक तीर्थों का विवेचन किया है, जो न केवल देश के अन्य क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं बल्कि जिनमें अनेक की स्थापना जैन धर्म के प्राचीनतम इतिहास के युग की है और स्वयं जिनप्रभसूरि उस इतिहास का स्मरण करते हैं, अतः ग्रंथ के पृष्ठभूमि के सम्यक् अध्ययन के लिये जैन धर्म के प्रसार का एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण आवश्यक है।
प्रस्तुत सर्वेक्षण चार प्रमुख भागों में विभाजित है। प्रारम्भ में जैन धर्म के प्रारम्भिक प्रसार का विवेचन है जो प्रायः ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों तक आता है और इस युग में जैन धर्म की भारत के विभिन्न भागों में स्थापना की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। जैन धर्म का श्वेताम्बर और दिगम्बर आम्नाय में विभाजन इसी यूग से सम्बन्धित है । द्वितीय भाग में उत्तर भारत में जैन धर्म के प्रसार का सर्वेक्षण है जिसमें प्रायः वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और राजस्थान के क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसके पश्चात् दक्षिण भारत और अन्त में गुजरात-काठियावाड़ में जैन धर्म के इतिहास की चर्चा है । स्वाभाविक रूप से यह अन्तिम चर्चा अपेक्षाकृत अधिक
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