SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थकार और ग्रन्थ का परिचय सूची में उल्लेख नहीं मिलता, यह अपने आप में रोचक है । ग्रन्थकार द्वारा उल्लिखित चौरासी संख्या भी एक पवित्र संख्या है, वस्तुतः इस सूची में चौरासी से अधिक तीर्थों का उल्लेख है । २४ इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के अन्तर्गत वास्तविक तीर्थों के साथ-साथ पौराणिक, परम्परागत एवं अज्ञात स्थिति वाले तीर्थों का भी उल्लेख किया है, परन्तु उनकी संख्या न्यून ही है । इस सन्दर्भ में एक रोचक तथ्य यह है कि जहां एक ओर कल्पप्रदीप में ग्रन्थकार के समय के और विशेषकर गुजरातराजस्थान और समीपवर्ती क्षेत्रों के कम या अधिक महत्व वाले प्रायः सभी तीर्थों का समावेश लगता है, वहीं दूसरी ओर अन्य प्रमाणों, विशेषकर पुरातात्विक प्रमाणों से सिद्ध कुछ प्रतिष्ठित जैन तीर्थों का उल्लेख नहीं । उदाहरण के रूप में यहां दो का उल्लेख किया जा सकता है; पहला उत्तरप्रदेश के झांसी जिले का देवगढ़ और दूसरा मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले का खजुराहो । पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर जैन केन्द्र के रूप में देवगढ़ का इतिहास ई० सन् ७ वीं शती से लेकर ई० सन् १५ वीं शती तक है, इसी प्रकार खजुराहो भी ई० सन् १० वीं शती से लेकर ई० सन् १३ वीं शती तक जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा, फिर भी कल्पप्रदीप में इनका उल्लेख क्यों नहीं है ? यह एक अत्यन्त रोचक प्रश्न है । स्पष्ट ही यह उत्तर तो सन्तोषजनक नहीं होगा कि जिनप्रभसूरि के समय ये केन्द्र ह्रास पर थे या समाप्तप्राय थे क्योंकि दोनों ही स्थितियों में ग्रन्थकार से इन स्थानों के इतिहास की दूरी नहीं के बराबर है, फिर यह भी ध्यान देने की बात है कि कल्पप्रदीप में ऐसे अनेक तीर्थों का उल्लेख है जो उनके समय में ( १४ वीं शती में ) समाप्तप्राय थे अथवा जिनकी कल्पप्रदीप के अतिरिक्त अन्य किसी साक्ष्य के आधार पर विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता । इसी प्रकार इस युक्ति का भी उपयोग करना संभव नहीं प्रतीत होता कि उपर्युक्त तीर्थों के दिगम्बर आम्नाय से सम्बन्धित होने के कारण कल्पप्रदीप में उनका उल्लेख नहीं, क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा के होते हुए भी ग्रन्थकार ने दिगम्बर तीर्थों का भी सम्मान उल्लेख किया है । यह सम्भावना अवश्य व्यक्त की जा सकती है कि देवगढ़ और खजुराहो का समीकरण कल्पप्रदीप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy