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________________ १८ प्रन्थकार और ग्रन्थ का परिचय के सम्बन्ध में इनके द्वारा रचित कल्पप्रदीप जैन साहित्य का एक अद्वितीय ग्रन्थ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जिनप्रभसूरि अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान् और शासनप्रभावक तथा मुस्लिम सुल्तानों पर अपना व्यापक प्रभाव डालने वाले प्रथम आचार्य थे । विविधतीर्थकल्प का परिचय __ आचार्य जिनप्रभसरि द्वारा रचित इस ग्रन्थ का वास्तविक नाम कल्पप्रदीप है, क्योंकि ग्रन्थ की प्रशस्ति में यही नाम मिलता है। इस ग्रन्थ के सम्पादक मुनिश्री जिनविजय जी ने इसे विविधतीर्थकल्प नाम दिया, जिससे यह ग्रन्थ इसी नाम से प्रसिद्ध हुआ। कल्पप्रदीप जिनप्रभसूरि की छोटी-बड़ी अनेक रचनाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। लोक में उनकी प्रसिद्धि इसी ग्रंथ के कर्ता के रूप में है । जैन विद्वानों के अलावा अनेक जैनेतर प्राच्यविद् एवं इतिहासकारों ने इसमें वर्णित तीर्थों के विवेचन तथा उसमें उल्लिखित कतिपय अनुश्रुतियों की ऐतिहासिकता पर विचार किया है। इनमें एस० पी० पंडित, जार्ज बूहलर आदि का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। ई० सन् १९३४ में मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित और सिंघी जैनग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित हो जाने पर यह ग्रन्थ सामान्य रूप से सुलभ हो सका; तभी से विद्वानों ने इस ग्रन्थ का समुचित उपयोग करना आरम्भ किया और आज भी वह क्रम जारी है। ग्रन्थ की प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रंथ श्रीहम्मीर मुहम्मद (सुल्तान मुहम्मद तुगलक) के राज्य में योगिनीपत्तन (दिल्ली) में भाद्रपद कृष्ण दसमी बुधवार वि० सं० १३८९ को पूर्ण हुआ। ग्रन्थ समाप्ति की प्रशस्ति को छोड़कर कुल ६२ कल्प हैं जिनमें से ६ कल्पों के अन्त में उनकी रचना का समय भी दिया गया है । ये कल्प हैं वैभारगिरिकल्प-वि०सं०१३६४, शत्रुञ्जयकल्प-वि०सं०१३८५; ढीपुरीस्तव-वि० सं० १३८६; अपापाबृहत्कल्प-वि० सं० १३८७, हस्तिनापुरस्तव-वि. सं. १३८८; महावीरगणधरकल्प-वि० सं० १३८९; शेष कल्पों में उनकी रचना-तिथि का उल्लेख नहीं। फिर भी कुछ कल्पों की रचना का समय उनमें वर्णित सन्दर्भो के आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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