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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
और ठक्कुर अचल आदि द्वारा निर्मित चैत्यों को शाही फरमान दिखाकर नष्ट होने से बचाया। अध्ययन अध्यापन और साहित्यसर्जन करते हुये आप ३ वर्ष दक्षिण में ही रहे, फिर सुल्तान के आग्रह पर ज्येष्ठ शुक्ल १२ को वहां से प्रस्थान किया और भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को सुल्तान के पास योगिनपुर (दिल्ली) पहुंच गये; जहां इनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ और अनेक उपहार भेंट किये गये। सुल्तान ने इन्हें एक नई वसति भी प्रदान की जिसमें इन्होंने सुल्तान से ही प्राप्त भगवान महावीर की प्रतिमा भी स्थापित की।
सुल्तान जब पूर्व देशों की विजय यात्रा पर गया तो आचार्य जिनप्रभ भी साथ-साथ थे, मार्ग में इन्होंने मथुरा तीर्थ की यात्रा की। आगरा तक आते-आते वद्धावस्था के कारण आचार्यश्री को कष्ट होने लगा, अतः हस्तिनापुरतीर्थ की यात्रा का फरमान लेकर आप दिल्ली लौट आये और वहां से शाह चाहड़ के पुत्र शाह बोहित्थ को संघपति बनाकर हस्तिनापुर तीर्थ की यात्रा की, वहां नवीन चैत्यों का निर्माण कराया और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर आचार्यश्री द्वारा शासन प्रभावना की गयी। जिनप्रभसूरि के मृत्यु का समय भी हमें ज्ञात नहीं होता। इनकी अंतिम ज्ञात रचना महावीरगणधरकल्प वि० सं० १३८९ की है, अतः अनुमान किया जाता है कि वि० सं० १३९० के आसपास लगभग ७२ वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई होगी।
जिनप्रभसूरि न केवल सुल्तान प्रतिबोधक, तीर्थरक्षक और शासनप्रभावक आचार्य थे अपितु उच्चकोटि के विद्वान् भी थे। वे न केवल जैन आगमों के बल्कि न्याय, दर्शन, व्याकरण, काव्य, अलंकार, छंद, तीर्थसाहित्य आदि के भी उच्चकोटि के विद्वान थे, यह बात उक्त विषयों पर लिखी गयी उनकी रचनाओं से स्पष्ट होती हैं ।" तीर्थों १. विविधतीर्थकल्प पृ० ९६ । २. वही, पृ० ९७। ३. वही ४. महोपाध्याय विनयसागर-पूर्वोक्त पृ. ६०-६१ । ५. वही, पृ० ९०-११० ।
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