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विषय प्रवेश ३-धर्माभ्युदयमहाकाव्य उदयप्रभसूरि वि० सं० १२८७
__के पूर्व ४-सुकृतकीतिकल्लोलिनी उदयप्रभसूरि वि० सं० १२८९ ५-रेवन्तगिरिरासु विजयसेनसूरि वि० सं० १२८९
कोतिकौमुदी और सुकृतसंकीर्तन मुनि पुण्यविजय द्वारा संपादित एवं सिंघी जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क ३२ में प्रकाशित है।
धर्माभ्युदयमहाकाव्य मुनि चतुरविजय एवं मुनि पुण्यविजय द्वारा संपादित तथा सिंघी जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क ४ में प्रकाशित है।
सुकृतकोतिकल्लोलिनी और रेवंतगिरिरासु भी मुनि पुण्यविजय द्वारा संपादित एवं सिंघी जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क ५ में प्रकाशित है।
उक्त ग्रन्थों से भी तीर्थों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त होते हैं। वि० सं० १३८९ में आचार्य जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ को पूर्ण किया। इसमें प्राचीन एवं मध्ययुगीन जैन तीर्थों का विवरण है। १४वीं शती से १९वीं शती तक छोटी-बड़ी अनेक तीर्थमालायें, संघवर्णन, चैत्यपरिपाटियां आदि लिखी गयीं। इनसे भी तीर्थों के सम्बन्ध में उपयोगी सूचनायें प्राप्त होती हैं।
दिगम्बर परम्परा में भी तीर्थों के सम्बन्ध में रची गयी छोटीबड़ी अनेक रचनायें ज्ञात हैं। इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम जिस स्वतंत्र रचना का उल्लेख किया जा सकता है वह है मदनकीति ( ई० सन् १२ वीं शती) द्वारा रचित शासनचस्त्रिशिका ।२ लगभग इसी समय रचे गये निर्वाणकाण्ड में भी कई जैन तीर्थों का उल्लेख है। श्वेताम्बर परम्परा की भांति दिगम्बर परम्परा में भी चैत्यवन्दन, तीर्थवन्दन, तीर्थजयमाला आदि की रचना हुई और आज भी यह क्रम जारी है। १. विजयधर्मसूरि द्वारा सम्पादित प्राचीनतीर्थमालासंग्रह में ऐसी २५
तीर्थमालायें प्रकाशित हैं। २. जोहरापुरकर, विद्याधर-संपा. तीर्थवन्दनसंग्रह पृ० २८-३३ । ३. वही, पृ० ३४.३८ । ४. वही, पृ० ४०-११० ।
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