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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
सिद्धान्तों के प्रति आकर्षण को कम करने में कुछ योगदान किया हो । ये सब होते हुये भी आधुनिक काल ( वर्तमान युग ) में भारतीय संस्कृति के अनेक अध्येताओं ने जैनधर्म और साहित्य के प्रति स्वयं को पूर्णरूपेण समर्पित किया और भारतीय संस्कृति के इस महत्वपूर्ण अंग के प्रति हमारे ज्ञान में वृद्धि की किन्तु, यह उल्लेखनीय है कि जैन सिद्धान्तों का जितना अधिक अध्ययन हुआ, जैन धार्मिक संस्थाओं का उतना अधिक नहीं । जैन धर्म का प्रारम्भ तो निरीश्वरवादी धर्म के रूप में ही हुआ और शुद्ध सैद्धान्तिक स्तर पर जैनों ने इस स्थिति को सदा सुरक्षित रखने की चेष्टा भी की. परन्तु व्यवहार में जैनधर्म में तीर्थङ्करों और उनसे सम्बन्धित अनेक देवी-देवताओं की पूजाप्रार्थना का प्रचुर विकास हुआ। श्रद्धालु जैनियों ने अनेक जैन देवताओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित कीं, भव्य स्मारकों का निर्माण कराया और इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में जैन तीर्थ केन्द्रों की स्थापना और वृद्धि हुई । जैन तीर्थों के इतिहास पर सन्तोषजनक प्रकाश डालने वाले आधुनिक गवेषणात्मक ग्रन्थों का प्रायः अभाव ही है, जो कुछ भी अध्ययन उपलब्ध है उनमें भी हमें प्रायः जैनधर्म के सामान्य प्रचार प्रसार का ही इतिहास मिलता है और उनकी विभिन्न धार्मिक संस्थाओं पर गम्भीर शोध की परम्परा तो प्रायः हाल में ही प्रारम्भ हुई । इस क्रम में जैन संघ, जैन प्रतिमा विज्ञान, जैन वास्तुकला आदि पर महत्त्वपूर्ण अध्ययन हो रहे हैं, परन्तु जैन तीर्थों पर अभी तक सन्तोषजनक अध्ययन प्रारम्भ नहीं किया गया । यद्यपि जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है, जैन धर्म में न केवल तीर्थ संस्था अत्यधिक विकसित थी, बल्कि जैन साहित्यकारों ने तीर्थों पर विशिष्ट साहित्य की भी रचना की । आचार्य जिनप्रभसूरि ऐसे ग्रन्थकारों में अग्रगण्य हैं । इसी कारण उनके ग्रन्थ कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प को प्रस्तुत विवेचना के विषय के रूप में चुना गया है ।
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अपने से विशेष गुणवान और योग्य व्यक्ति के श्रद्धा एवं पूज्य बुद्धि का होना स्वाभाविक है । इसी वाद का विकास हुआ और क्रमशः अवतारवाद, बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा आदि कल्पनायें एवं विधि-विधान भी प्रकाश में आये । तीर्थ भावना का भी भक्तिवाद से ही जन्म हुआ माना जाता है । पूज्य
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प्रति मनुष्य की भावना से भक्ति
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