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________________ विषय प्रवेश ब्यक्ति के माता-पिता, वंश, जन्म, विहार आदि से सम्बन्धित स्थान तीर्थरूप में प्रसिद्ध हुए । प्रत्येक धार्मिक समुदाय में तीर्थों का इसीकारण जन्म हुआ। चूंकि जैन परम्परा में तीर्थङ्कर का पद सर्वोच्च है, अतः उनके जीवन से सम्बन्धित स्थानों को तीर्थ माना गया। इन स्थानों में पूजा हेतु चरण-चिह्न अथवा प्रतिमा स्थापित कर दी जाती थी, जो उस तीर्थङ्कर के स्मृति को जीवन्त बनाये रखती थी। यह सर्वज्ञात है कि जैन धर्म में २४ तीर्थङ्करों की मान्यता है, परन्तु आधुनिक इतिहासकारों को इनमें से अन्तिम दो-पार्श्वनाथ और महावीर की ऐतिहासिकता ही स्वीकार्य है। यद्यपि इन तीर्थङ्करों के भी प्रामाणिक जीवनवृत्त का विस्तार से ज्ञान तो नहीं है फिर भी इनके जीवन से सम्बन्धित स्थानों की तीर्थ रूप में विकास की सहज कल्पना की जा सकती है। कालान्तर में जब जैन धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उन नये-नये क्षेत्रों में जैन श्रमणों और उपासकों के केन्द्रों बने, तब उन स्थलों में भी तीर्थों की कल्पना की गयी। ये स्थान पार्श्वनाथ और महावीर के अतिरिक्त अन्य तीर्थङ्करों के जीवनवृत्त से भी सम्बद्ध किये गये। वास्तव में जैन परम्परा सभी तीर्थङ्करों के अलग-अलग जीवनवृत्त प्रस्तुत करती है और उनके जन्म, ज्ञानप्राप्ति और निर्वाण आदि के स्थलों की सूचना देती है। यह कल्पना सहज ही की जा सकती है कि भले ही अनेक तीर्थङ्करों सम्बन्धी ये सूचनायें काल्पनिक हैं, परन्तु विशेष क्षेत्रों में व्यापक रूप से लोकप्रिय जैन धर्म के पृष्ठभूमि में जैन समाज ने इन्हें ऐतिहासिक स्वीकार कर लिया होगा। इस विकास का स्वाभाविक क्रम यही रहा होगा कि ऐतिहासिक तीर्थङ्करों के आधार पर अन्य तीर्थङ्करों की कल्पना हुई और इनके जीवनवृत्त के आधार पर अन्य तीर्थङ्करों का भी जीवनवृत्त ढ़ाला गया। सामान्यरूप से तीर्थङ्करों के प्रतिमास्थापन इत्यादि की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो जाने पर इन्हीं प्रतिमाओं और जिनालयों के आधार पर उन तीर्थस्थलों को तीर्थङ्कर विशेष के जीवन से सम्बद्ध कर लिया गया। इस प्रकार अनेक स्थान जिनका तीर्थङ्करों के जीवन से कोई वास्तविक सम्बन्ध न था, तीर्थ माने जाने लगे, इसके परिणाम स्वरूप आज छोटे-मोटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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