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________________ २७४ दक्षिण भारत के जैन तीर्थ होंगे । जहाँ तक इस नगरी के वीरक्षेत्र होने का प्रश्न है, यक्ष, ब्रह्म और वीर एक ही माने जाते हैं।' काश्मीर से कन्याकुमारी और सौराष्ट्र से बंगाल तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में यक्षपजा का आज भी किसी न किसी रूप में प्रचलन है ।२ लोकधर्म के प्रभाव से ही ब्राह्मणीय, बौद्ध और जैन परम्परा में भी यक्ष पूजा का प्रचलन हुआ । इन वीरों (यक्षों) की संख्या ५२ मानी जाती है। यक्षों का निवास स्थान ब्रह्मपुरी माना जाता है। चूंकि प्रतिष्ठान नगरी का एक नाम ब्रह्मपुरी भी है, जो यहाँ प्रचलित यक्ष-पूजा का एक स्पष्ट प्रमाण है । यही बात जिनप्रभ ने भी कही है । जहाँ तक मुनिसुव्रत के भृगुकच्छ जाने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि आधुनिक विद्वानों ने पार्श्वनाथ से पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों को प्रागैतिहासिक माना है, इसलिये उनके सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं की ऐतिहासिकता का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु चूंकि श्वेताम्बर जैन परम्परा में उक्त मान्यता का बड़ा महत्त्व है और जिनप्रभसूरि स्वयं एक श्रद्धालु जैन आचार्य थे, अतः उनके द्वारा उक्त मान्यता का उल्लेख होना स्वाभाविक ही है। ___ जैन ग्रन्थों में कालकाचार्य के सम्बन्ध में ७ घटनाओं की चर्चा मिलती है १-दत्त राजा के सामने यज्ञफल और दत्त मृत्यु-विषयक भविष्यकथन ( निमित्त कथन)। २-शक्र-संस्तुत निगोद व्याख्याता आर्य कालक । ३- आजीविकों से निमित्त पठन और तदनन्तर सातवाहन राजा के ३ प्रश्नों का निमित्त ज्ञान से उत्तर देना। १. बाल, वासुदेवशरण -प्राचीन भारतीय लोकधर्म, पृ० १२३ । २. वही, पृ० ११८ । ३. वही, पृ० ११८-१९ । ४. वही, पृ० १२३ । ५. वही ६. डे, नन्दोलाल-पूर्वोक्त, पृ० १५९ । ७. क्राउझे, शार्लोटे-संपा० ऐन्शेण्ट जैन हीम्स, पृ० ५-६। ८. शाह, यू०पी०-सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ० २८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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