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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन २४९ नुसार उन्होंने शीलादित्य की सभा में बौ द्वों को शास्त्रार्थ में पराजित किया तथा राजसभा में अपना प्रभत्व स्थापित किया। परन्तु जैनों का उक्त विवरण भ्रामक माना जाता है। प्रथम तो प्रबन्ध ग्रन्थों में ही उक्त बात का अलग-अलग रूप से उल्लेख किया गया है और दूसरे किसी भी अन्य साक्ष्य से इसका समर्थन नहीं होता। राजदरबार में बौद्धों के व्यापक प्रभाव के कारण सम्भवतः धामिक विद्वेश के कारण जैनों ने यह कथा गढ़ ली है। वास्तव में वलभी मैत्रकयुग में बौद्धों का एक प्रसिद्ध केन्द्र रहा। मैत्रक नरेश यद्यपि बौद्ध धर्मावलम्बी थे,परन्तु उन्होंने किसी भी धर्म पर कोई कुठाराघात नहीं किया। इस समय ब्राह्मणीय धर्म भी विकसित होता रहा तथा जैनों पर भी कोई दबाव नहीं था, तथापि इसे राजाश्रय प्राप्त न हो सका। फिर भी यहाँ जैनों की बड़ी संख्या विद्यमान थी, यह बात वल भी संगीति के विवरण और प्रबन्धग्रन्थों से स्पष्ट होती है। प्रबन्धग्रन्थों के अनुसार वलभीभंग के समय यहाँ से जिनप्रतिमायें भिन्न-भिन्न स्थानों को ले जायी गयीं। इस प्रकार स्पष्ट है कि मैत्रक युग में वलभी नगरी में जैन धर्म विद्यमान रहा। जैन प्रबन्धग्रन्थों में वलभी भंग की कई तिथियाँ प्राप्त होती हैं,२ परन्तु वे प्रामाणिक नहीं मानी जाती। वास्तव में यह नगरी ई० सन् ७८३ के पूर्व अवश्य ही नष्ट की जा चुकी थी, यह बात हरिवंशपुराण ( जिनसेन-ई० सन् ७८३ ) से ज्ञात होती है । आधुनिक विद्वानों ने वलभीभंग की तिथि ई० सन् ७७६ मानी है। भंग होने के पश्चात् भी इस नगरी का अस्तित्त्व बना रहा, परन्तु वह अपने पूर्ववैभव को पूर्णतः १. “वलभीभङ्गप्रबन्ध-प्रबन्धचिन्तामणि, संपा० जिनविजय, पृ० १०९। “वलभीभङ्गप्रबन्ध"-पुरातनप्रबन्धसंग्रह, संपा० जिनविजय, पृ० ८२ । २. विरजी, के ० जे०-ऐन्शियेन्ट हिस्ट्री ऑफ सौराष्ट्र, पृ० १०२ । ३. शाकेष्वद्वशतेषु सप्तसुदिशं पंचोतेरेषूत्तरं (रां) पातीद्रायुधनान्ति (म्नि) कृष्णनृपजेश्रीवल्लभे दक्षिणां । पूर्वां श्रीमदवति (न्ति) भूमृति नृपे वत्सादिराजै (जे) परां सौर्याणामधिमडलं जययुते वीरे वरादे(हे)बनि(ति) ॥ ५१ ॥ हरिवंशप्राण की प्रशस्ति ४. विरजी, के. के० --पूर्वोक्त, पृ० १०१-१०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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