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________________ २३० पश्चिम भारत के जैन तीर्थ ९. खङ्गारगढ़ कल्पप्रदीप के चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रहकल्प के अन्तर्गत खंगारगढ़ भी उल्लेख है और यहाँ आदिनाथ के मंदिर होने की बात कही गयी है। रैवतगिरिकल्प' के अन्तर्गत भी खङ्गारगढ़ का उल्लेख हुआ है, वहाँ इसके दो अन्य नामों उग्रसेनगढ़ और जीर्णदुर्ग की भी चर्चा है। खङ्गारगढ़ स्थित आदिनाथ जिनालय का सर्वप्रथम उल्लेख वि०सं० १२८९/ई० सन् १९३२ के लगभग नागेन्द्रगच्छीय विजयसिंहसरि द्वारा रचित रवंतगिरिरासु में प्राप्त होता है। प्रबन्धकोश' में भी खङ्गारगढ़ स्थित जिनालय का उल्लेख है और वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा यहाँ दर्शनार्थ पधारने की बात कही गयी है। मुस्लिम शासनकाल में अनेक जिनालय मस्जिदों के रूप में परिवर्तित कर दिये गये । यहाँ ( खङ्गारगढ़) स्थित आदिनाथ का उक्त जिनालय भी महमूद बेगड़ा ( ई० सन् १४६७-७२) के शासनकाल में मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। उक्त मस्जिद के खम्भों आदि की बनावट से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह पहले एक जिनालय था। हाल के वर्षों में जूनागड़ म्यूजियम के लिए पार्श्वनाथ की दो पाषाण प्रतिमायें प्राप्त की १. कल्पप्रदीप के अन्तर्गत २. तहि नयरह पुरवदिसिहि, उग्गसेण गढदुग्गु । आदिजिणेसरपमुहजिणिमंदिरि भरिउ समग्गु ।। ११ ।। मुनि पुण्यविजय-संपा० सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यादिवस्तुपालचरितसंग्रह, पृ० ९९ ३. अथ खङ्गारदुर्गादि देवपत्तनादिषु देवान् ववन्दे। तेजःपालं खङ्गारदुर्गे स्थापयित्वा स्वयं ससङ्घों वस्तुपाल: श्रीधवलक्कके श्रीवीरधवलमगमत् । .... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... तेजपालस्तु खंङ्गारदुर्गस्थो भूमि विलोक्य तेजलपुरममण्डयत् सत्रारामपुरप्रपाजिनगृहादिरम्यम्। प्राकारश्च तेजलपुरं परितः कारितः पाषाणबद्धस्तुङ्गः। "वस्तुपालप्रबन्ध'' प्रबन्धकोश, पृ० ११७ ४. शास्त्री, हरिशंकर प्रभाशंकर ---"जूनागढ़ म्यूजियममा केटलाक अप्रकाशित शिलालेखो" स्वाध्याय, वर्ष १, अंक ४, पृ० ४२९-३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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