SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन दी और पूर्व निर्णयानुसार चैत्यालय का नामकरण श्रेष्ठी के नाम पर "कोकावसतिपार्श्वनाथचैत्यालय” रखा। चौलुक्यनरेश भीम के शासनकाल में मालवा के सुल्तान ने यहाँ चढ़ाई की, नगरी को नष्ट किया तथा इस चैत्यालय के पार्श्वनाथ की प्रतिमा को भी भग्न कर दिया। कालान्तर में सौणिक नायग के वंशज श्रेष्ठी रामदेव आसधर ने चैत्यालय का पुननिर्माण कराया और वि० सं० १२६६ में श्री देवाणंदसूरि द्वारा पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित करायी। श्रेष्ठी रामदेव को तिहुणा और जाजा नामक दो पुत्र हुए। तिहुणा के पुत्र का नाम मल्ल था, उसके दो पुत्र --पहला देल्हण और दूसरा जैत्रसिंह प्रतिदिन पार्श्वनाथ की पूजा करते हैं। 'कोकावसतिपार्श्वनाथ' का यह चैत्यालय मलधारगच्छ से सम्बन्धित है।" जिनप्रभसूरि ने हर्षपुरीयगच्छ के श्री अभयदेवसूरि के अणहिलपुर पत्तन जाने तथा वहाँ राजा द्वारा सम्मान एवं उपाश्रय प्राप्त करने का उल्लेख किया है। यही विवरण हमें राजशेखर कृत प्राकृतद्वयाश्रयवृत्ति ( वि० सं० १३८७ ) में भी प्राप्त होता है, परन्तु वहाँ राजा का नाम जयसिंह नहीं अपितु उसका पूर्ववर्ती कर्णदेव बतलाया गया है । मलधारी हेमचन्द्रसूरि के शिष्य विजयसिंहमूरि द्वारा रचित धर्मोपदेशमालाविवरणवृत्ति ( रचनाकाल सं० ११९१ ) के अनुसार जयसिंह सिद्धराज ने अभयदेवसूरि के उपदेश से प्रभावित होकर अपने राज्यभर में श्रावण वदी अष्टमी और भाद्रपद सुदी चतुर्थी को पशुवध का निषेध कर दिया था। इससे जयसिंह सिद्धराज पर अभयदेवसूरि १. श्रीगूर्जरेश्वरो दृष्ट्वा तीब्र मलपरीषहं । श्री कर्णो बिरुदं यस्य मलधारी व्यधोषयत् ॥ ---राजशेखरकृत प्राकृत द्वयाश्रयवत्ति की प्रशस्ति देसाई, मोहनलाल दलीचंद जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० २२७ से उद्धृत २. यस्योपदेशादखिलस्वदेशे सिद्धाधिपः श्री जयसिंहदेवः । एकादशीमुख्यदिनेष्वमारीमकारयच्छासनदानपूर्वाम् ॥ ८ ॥ धर्मोपदेशमालावत्ति की प्रशस्ति दलाल, सी. डी०- ए डिस्कृिप्टिव कैटलॉग ऑफ मैन्युस्कृिप्ट्स इन द जैन भंडार्स ऐट पाटन, पृ० ३१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy