________________
(११)
तीर्थ और तीर्थयात्रा
पूर्व विवरण से स्पष्ट है कि जैन परम्परा में 'तीर्थ' शब्द के अर्थ का ऐतिहासिक विकास-क्रम है। सर्वप्रथम जैन धर्म में गंगा आदि लौकिक तीर्थों की यात्रा तथा वहाँ स्नान, पूजन आदि को धर्म साधना की दृष्टि से अनावश्यक माना गया और तीर्थ शब्द को आध्यात्मिक अर्थ प्रदान कर आध्यात्मिक साधना-मार्ग को तथा उस साधना का अनुपालन करने वाले साधकों के संघ को ही तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया । किन्तु कालान्तर में जैन परम्परा में भी तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों को पवित्र स्थानों के रूप में मान्य करके तीर्थ की लौकिक अवधारणा का विकास हुआ। ई० पू० में रचित अति प्राचीन जैन-आगमों जैसे आचारांग आदि में हमें जैन तीर्थस्थलों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि उनमें हिन्दू परम्परा के तीर्थस्थलों पर होने वाले महोत्सवों तथा यात्राओं का उल्लेख मिलता है। परन्तु आध्यात्ममार्गी जैन परम्परा मुनि के लिए इन तीर्थमेलों और यात्राओं में भाग लेने का भी निषेध करती थी।' ईसा की प्रथम शताब्दी से पांचवीं शताब्दी के मध्य निर्मित परवर्ती आगमिक साहित्य में भी यद्यपि जैन तीर्थस्थलों और तीर्थयात्राओं के स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलते, फिर भी इनमें तीर्थङ्करों की कल्याणकभूमियोंविशेष रूप से जन्म एवं निर्वाण-स्थलों की चर्चा है । साथ ही तीर्थङ्करों की चिता-भस्म एवं अस्थियों को क्षीरसमुद्रादि में प्रवाहित करने तथा देवलोक में उनके रखे जाने के उल्लेख इन आगमों में हैं। उनमें अस्थियों एवं चिता-भस्म पर चैत्य और स्तुप के निर्माण के उल्लेख भी मिलते हैं। जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति में ऋषभ के निर्वाण-स्थल पर स्तूप
से भिक्खु वा भिक्खु वा "थूभ महेसु वा, चेतिय महेसु वा तडाग महेसु वा, दहमहेसु वा णई महेसु वा सरमहेसु वा"..''णो पडिगाहेज्जा ।
आचारांग २।१।२।२४ (लाडनू) २. (अ) समवायांग प्रकीर्णक समवाय २२५।१
(ब) आवश्यकनियुक्ति ३८२-८४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org