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( १२) बनाने का उल्लेख है।' इस काल के आगम ग्रन्थों में हमें देवलोक एवं नन्दीश्वर द्वीप में निर्मित चैत्य आदि के उल्लेखों के साथसाथ यह भी वर्णन मिलता है कि पर्व तिथियों में देवता नंदीश्वरद्वीप जाकर महोत्सव आदि मनाते हैं। यद्यपि इस काल के आगमों में -अरिहंतों के स्तुपों एवं चैत्यों के उल्लेख तो हैं किन्तु उन पवित्र स्थलों पर मनुष्यों द्वारा आयोजित होने वाले महोत्सवों और उनकी तीर्थ यात्राओं पर जाने का कोई उल्लेख नहीं है। विद्वानों से मेरी अपेक्षा है कि यदि उन्हें इस तरह का कोई उल्लेख मिले तो वे सूचित करें। ___ यद्यपि लोहानीपुर और मथुरा में उपलब्ध जिन-मूर्तियों, आयाग'पटों, स्तूपांकनों तथा पूजा के निमित्त कमल लेकर प्रस्थान आदि के
अंकनों से यह तो निश्चित हो जाता है कि जैन परम्परा में चैत्यों के 'निर्माण और जिन प्रतिमा के पूजन की परम्परा ई० पू० की तीसरी शताब्दी में भी प्रचलित थी। किन्तु तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी उल्लेखों का आचारांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे इस काल के प्राचीन आगमों में अभाव हमारे सामने एक प्रश्न चिह्न तो अवश्य ही उपस्थित करता है।
तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी समस्त उल्लेख नियुक्ति, भाष्य और ची साहित्य में उपलब्ध होते हैं । आचारांग नियुक्ति में अष्टापद, उर्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र और अहिच्छत्रा को वन्दन किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि नियुक्ति काल में तीर्थस्थलों के दर्शन, वन्दन एवं यात्रा की अवधारणा स्पष्ट रूप से बन चुकी थी
और इसे पूण्य-कार्य माना जाता था। निशीथचूर्णी में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करने से दर्शन की विशुद्धि होती है, अर्थात् व्यक्ति की श्रद्धा पुष्ट होती है। १. (अ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २।१११ (लाडनू)
(ब) आवश्यक नियुक्ति ४५
(स) समवायांग ३५।३ । २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (जबुद्दीवपण्णत्ति) २।११४-२२ ३. अट्ठावय उज्जिते गयग्गपए धम्मचक्के य । पास रहावतनगं चमरुप्पायं च वंदामि
--आचारांगनियुक्ति, पत्र १८ ४. निशीथचूर्णी, भाग ३, पृ० २४
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