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सम्बन्धित होने के कारण वे स्थल पवित्र बने हैं । जैनों के अनुसार कोई भी स्थल अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं होता, अपितु वह किसी महापुरुष से सम्बद्ध होकर या उनका सान्निध्य पाकर पवित्र माना जाने लगता है, यथा - कल्याणक भूमियाँ; जो तीर्थंकर के जन्म, दीक्षा, कैवल्य या निर्वाणस्थल होने से पवित्र मानी जाती हैं । बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित स्थलों को पवित्र माना गया है ।
हिन्दू और जैन परम्परा में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ हिन्दू परम्परा में प्रमुखतया नदी-सरोवर आदि को तीर्थ रूप में स्वीकार किया गया है वहीं जैन परम्परा में सामान्यतया किसी नगर अथवा पर्वत को ही तीर्थस्थल के रूप में स्वीकार किया गया । यह अन्तर भी मूलतः तो किसी स्थल को स्वतः पवित्र मानना या किसी प्रसिद्ध महापुरुष के कारण पवित्र मानना - इसी तथ्य पर आधारित है । पुनः इस अन्तर का एक प्रसिद्ध कारण यह भी हैजहाँ हिन्दू परम्परा में बाह्य शौच ( स्नानादि शारीरिक शुद्धि ) की प्रधानता थी, वहीं जैन परम्परा में तप और त्याग द्वारा आत्मशुद्धि: की प्रधानता थी, स्नानादि तो वर्ज्य ही माने गये थे । अतः यह स्वा-भाविक था कि जहाँ हिन्दू परम्परा में नदी-सरोवर तीर्थ रूप में विकसित हुए, वहाँ जैन परम्परा में साधना स्थल के रूप में वनपर्वत आदि तीर्थों के रूप में विकसित हुए । यद्यपि आपवादिक रूप में हिन्दू परम्परा में भी कैलाश आदि पर्वतों को तीर्थ माना गया, वहीं जैन परम्परा में शत्रुंजय नदी आदि को पवित्र या तीर्थ के रूप में माना गया है, किन्तु यह इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव का परिणाम था । पुनः हिन्दू परम्परा में जिन पर्वतीय स्थलों जैसे कैलाश आदि को तीर्थ रूप में माना गया उनके पीछे भी किसी देव का निवासस्थान या उसकी साधनास्थली होना ही एकमात्र कारण था, किन्तु यह निवृत्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव था । दूसरी ओर हिन्दू परंपरा के प्रभाव से जैनों में भी यह अवधारणा बनी कि यदि शत्रु जय नदी में स्नान नहीं किया तो मानव जीवन ही निरर्थक हो गया ।
'सतरू'जी नदी नहायो नहीं, तो गयो मिनख जमारी हार' |
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