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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन १५९ उन्होंने देखा वह विक्रम के उल्लेखों से अंकित बाद के समय में लिखी हुई नकली शिलालेखों अथवा ताम्रपत्रों में से एक थी, जो कभी कभी हस्तगत हो जाया करते हैं। फिर भी यह निर्विवाद है कि जिस कुडुगेश्वरदेव का आलम्बन कर ऐसे आशय की एक जाली शासनपट्टिका बनायी जा सकी और जिसके संबंध में वृद्ध परम्परा के ऐसे संस्मरण प्रचलित हो सके, उस कुडुगेश्वरदेव का नाम किसी समय में एक प्रसिद्ध वस्तु और उसका मंदिर एक महिमा संयुक्त जैन तीर्थस्थान अवश्य था।' इस बात का समर्थन प्रबंधचिन्तामणि के अन्तर्गत 'कुमारपालप्रबन्ध' (पृ० ७८) के एक वृत्तान्त से भी होता है। उसके अनुसार गुजरात के भावी राजा कुमारपाल वर्तमान राजा सिद्धसेन के भय से भागते-भागते मालव देश में कुडुगेश्वर के मंदिर में आते हैं और यहां रखी हई शासनपटिका में इस आशय का एक पद्य पढ़ते हैं कि "विक्रम से ११९९ वर्ष पश्चात् स्वयं कुमारपाल ही विक्रम के सदश्य एक राजा होंगे ।' उक्त पद्य अन्य ग्रन्थों में भी मिलता है। मूल रूप से उपमें सिद्धसेन दिवाकर विक्रमादित्य को सम्बोधित करते दिखाये गये हैं। पुरातनप्रबंधसंग्रह (पृ० ३ . तथा पृ० १२३) में भी कुमारपाल का यह वृत्तान्त पाया जाता है, परन्तु वहाँ कुडुगेश्वर के स्थान पर कुण्डि. गेश्वर शब्द लिखा है और उपयुक्त पद सिद्धसेन द्वारा ही कथित बतलाया गया है। कूड़गेश्वर नाम के वे उल्लेख भी कुडगेश्वर जैन तीर्थ की विद्यमानता की एक अस्पष्ट प्रतिध्वनि समझे जा सकते हैं। ___ यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत घटनाओं की रंगभूमि प्राचीन उज्जयिनी में जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा। राजा सम्प्रति ने यहीं से जैन धर्म का प्रचार किया था। कालकाचार्य द्वारा प्रतिबोधित शक नरेशों ने भी उज्जयिनी को ही अपनी राजधानी बनायी थी। सम्प्रति के समय यहाँ जीवन्तस्वामी के एक मदिर होने का भी उल्लेख १. विकृमस्मृतिग्रंथ, पृ० ४१५ । २. वही, पृ० ४१५ । ३. वही, पृ० ४१५ । ४. वही, पृ. ४२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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