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________________ मध्य भारत के जैन तीर्थ दिगम्बर सम्प्रदायों में विभक्त हुआ, अतः वि०सं०१ में श्वेताम्बरों की विद्यमानता का प्रश्न ही नहीं उठता । सब से ज्यादा आपत्ति तो है सिद्धसेनदिवाकर और संवत्सरप्रवर्तक विक्रमादित्य का समकालीन होना, जो पं० सुखलालजी और पं० बेचरदास जी की दृष्टि में संदिग्ध ही नहीं अपितु असंभव है ।' इन विद्वानों ने सिद्धसेन को गुप्तकाल में रखा है और कहा है कि यदि सिद्धसेन ने विक्रमादित्य को धर्मलाभ दिया है तो वह केवल विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित कोई गुप्तवंशीय नरेश ही हो सकता है ।" ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि जब दोनों समकालीन ही नहीं थे तो विविधतीर्थकल्प की इतनी शंकाओं से युक्त विवरणों में कितना ऐतिहासिक तथ्य विद्यमान हैं ? इसके बाद भी ग्रंथकार निम्नलिखित शब्दों में पाठकों से विश्वास की मांग करते हैं कि १५८ कुडु गेश्वर नाभेयदेवस्थानल्पतेजसः । कल्पं जल्पामि लेखेन दृष्ट्वा शासनपट्टिकाम् ॥ अर्थात् ' शासनपट्टिका को देखकर मैं महान् तेजस्त्री कुडु' गेश्वर के कल्प को संक्षेप में कहूंगा ।" यह कथन उस महान् आचार्य जिनप्रभसूरि के हैं जिन्होंने मुहम्मद तुगलक को भी जैन धर्म का हितैषी बनाया | ऐसे महापुरुष की बात में सन्देह तो नहीं करना चाहिये और यह मानना चाहिए कि उन्होंने एक शासनपट्टिका चाहे वह शिलालेख हो या ताम्रपत्र, अवश्य देखी थी । परन्तु उन्होंने उसके संबंध में स्मृति से लिखा और वृद्ध परंपराओं के मौखिक स्मरणों के आधार पर उसे आगे भी बढ़ाया, जैसा वे स्वयं कहते हैं । इससे स्पष्ट है कि ग्रंथकार ने प्रस्तुत तीर्थ को अति प्राचीन इतिहास की एक आदरणीय वस्तु समझकर उसकी तत्कालीन ऐतिहासिकता का प्रश्न छोड़कर उसके संबंध में प्रचलित किंवदन्तियों के संग्रह के रूप में अपना यह विवरण 'प्रस्तुत किया है ।" यह भी संभव है कि जिस शासनपट्टिका को १. विक्रमस्मृतिग्रंथ, पृ० ४१४ । २ . वही । ३. विविधतीर्थंकल्प, पृ० ८८ । ४. विक्रमस्मृतिग्रंथ पृ० ४१५ । ६. वही, पृ० ४१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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