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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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६ - सम्यकत्वसप्तशतिकाटीका'-श्रीसंघतिलकसूरि (ई० सन्
७.विक्रमचरित-शुभशीलगणि (ई० सन् १४४३ या १४३४ ?) जिनप्रभसूरि ने दोनों महापुरुषों में उक्त भेंट का स्थान कुडगेश्वर का मंदिर बतलाया है । यही बात धनेश्वरसूरि और प्रभाचन्द्राचार्य ने भी कही है। इसके विपरीत प्रबंधकोश, कल्याणमंदिरस्तोत्रटीका,सम्यकत्वसप्तशतिकाटोका, विक्रमचरित आदि के अनुसार वह महाकाल का मंदिर था, जब कि पुरातनप्रबंधसंग्रह और प्रबंध. चिन्तामणि के अनुसार वह गढ़महाकाल का मंदिर था। इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त मंदिर के ३ नाम मिलते हैं यथा-कुडगेश्वर का मदिर, महाकालमंदिर और गूढ़महाकालमंदिर ।
विक्रमादित्य के आग्रह पर सिद्धसेन ने पाठ किया, यह पाठ कौन सा था ? इस प्रश्न पर भी मतभेद है। कल्याणमंदिरस्तोत्रतटीका के अनुसार कल्याणमंदिरस्तोत्रके पाठ से लिङ्ग फट गया और पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। इसके विपरीत विविधतीर्थकल्प [ कल्प. प्रदीप], कथावली, प्रबंधचिन्तामणि, पुरातनप्रबंधसंग्रह और सम्यकत्वसप्तशतिकाटीका के अनुसार सिद्धसेन ने उक्त अवसर पर द्वात्रिशिकाओं का पाठ किया। प्रभावकचरित,प्रबंधकोश, विक्रमचरित और उपदेशप्रासाद के अनुसार सिद्धसेन ने "कल्याण-मंदिरस्तोत्र" और "द्वात्रिंशिकाएं" दोनों का पाठ किया; जिसके उपरान्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। कल्पप्रदीप में आदिनाथ की प्रतिमा प्रकट होने का उल्लेख है। कु० क्राउझे ने इसे ग्रंथ सम्पादक मूनि जिनविजय की भूल माना है और इस संबंध में उन्होने जो तर्क दिये हैं, वे बड़े महत्त्व के हैं___ मूल कथा में पार्श्वनाथ की प्रतिमा का ही प्रादुर्भाव कथित हुआ होगा, जिसके नामान्तर "वामासूनु' 'वामेय' इत्यादि जिनप्रभ के १. (संशोधक-मुनि वल्लभविजय-प्रका० श्रेष्ठी देवचन्दलालभाई जैन
पुस्तकोद्धारे, ग्रन्थाङ्क ३५, ई० सन् १९१६ ) २. ( संशोधक और प्रकाशक-पं० भगवानदास, वि०सं० १९९६ )
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