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मध्य भारत के जैन तीर्थ
आधारभूत मूलग्रंथ की आदर्श प्रति में लेखक की भूल से 'नाभिसन'. 'नाभेय' आदि में परिवर्तित किये गये और इस भूल के परिणाम स्वरूप शेष परिवर्तन पिछली प्रतियों में क्रमशः आ गये होंगे। दूसरे विविधतीर्थकल्प की [अ] प्रति में दी गयी तीर्थकल्पों की अनुक्रमणिका (पृ० १११) तथा प्रस्तुत तीर्थकल्प (नं० ४७) का नाम "कुडुगेश्वरनाभेयदेवकल्प" के स्थान पर साथ-साथ श्रीकुडुगेश्वरपार्श्व" ही लिखा है। इसके अलावा "चतुरशीतिमहातीर्थनामसंग्रहकल्प" में प्रथम तीर्थङ्कर के तीर्थस्थानों की नामावली में न तो कुडुगेश्वर का उल्लेख है और न उज्जयिनी का ही विवरण है, किन्तु पार्श्वनाथ की तीर्थ-सूची में “महाकालान्तरपातालचक्रवर्ती" ऐसा नाम पाया जाता है। इससे भी उक्त अनुमान का समर्थन होता है । अतः यह बात स्पष्ट है कि उक्त बिम्ब आदिनाथ की नहीं पार्श्वनाथ का ही था।
विक्रमादित्य द्वारा सिद्धसेन को दिये गये दान का विवरण और उसकी समीक्षा इस प्रकार है
"ततश्च गोहृदमण्डले च सांवद्रा प्रभृतिग्रामाणामेकनवति, चित्रकूटमण्डले वसाढप्रभृतिग्रामाणं चतुरशीति, तथा 'घुटारसीप्रभृतिग्रामाणं चतुर्विशति, मोहडवासकमण्डले ईसरोडाप्रभृतिग्रामाणा षट्पञ्चाशतं श्रीकुंडगेश्वरऋषभदेवाय शासनेन स्वनिः श्रेयसार्थमदात् । ततः शासनपट्टिकां श्रीमदुज्जयिन्यां, संवत् १, चैत्र सुदि १, गुरो, भाटदेशीयमहाक्षपटलिक परमाहतश्वेताम्बरोपासक ब्राह्मण गौतमसुतकात्यायनेन राजाऽलेखयत् ," ।
कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प पृ०-८९ । । अर्थात् “तत्पश्चात् ( राजा ने अपने आत्मकल्याण के लिए कुडुगेश्वरऋषभदेव को शासन द्वारा गोहद मंडल में सांवद्रा आदि ९१ ग्राम, चित्रकट मंडल में वसाढ़ आदि ८४ ग्राम तथा घुटारसी आदि में २४ ग्राम और मोहडवासकमंडल में ईसरोडा आदि ५६ ग्राम भेंट किये। इसके बाद राजा ने शासनपट्टिका उज्जयिनी में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् १रुवार को भाट देश के निवासी महाअक्षपटलिक, परमश्रावक श्वेताम्बरमतावलम्बी ब्राह्मण गौतम के पुत्र कात्यायन द्वारा लिखवाया।"
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