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________________ १५४ मध्य भारत के जैन तीर्थ सिद्धसेन दिवाकर के नाम से प्रसिद्ध हए । एकबार उन्होंने अपने गुरु से आगमों को संस्कृत भाषा में अनुवादित करने की अनुमति मांगी, जिससे उनके गुरु ने उन्हें दण्डस्वरूप १२ वर्ष तक अवधूत के वेष में विचरण करने का विधान निश्चित किया। अपने प्रायश्चित्त के १२वें वर्ष में भ्रमण करते हुए वे उज्जयिनी स्थित महाकालमंदिर में आये, जहाँ लोगों के भाग्रह करने पर भी उन्होने शिवलिंग को प्रणाम नहीं किया। जब विक्रमादित्य को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने स्वयं आकर उनसे वही निवेदन किया, जिस पर उन्होंने शिवलिंग के खंडित होने की बात कही । परन्तु राजा के आग्रह पर उन्होंने हात्रिशिकाओं का पाठ किया, जिससे शिवलिङ्ग फट गया और उसमें से आदिनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई । यह देखकर राजा बडा चमत्कृत हुआ और मुनि ने उसे धर्मलाभ दिया। प्रसन्न होकर राजा ने मुनि को १ करोड़ दिया और मंदिर को ग्रामादि दान में दिया तथा संवत् १ चैत्र, गुरुवार को इस आशय से युक्त एक शासनपट्टिका भी श्वेताम्बरोपासक ब्राह्मण गौतम के पुत्र कात्यायन से लिखवाया। सभी जटाधारी दार्शनिकों को श्वेताम्बर जैन बनाया तथा सम्पूर्ण पृथ्वी पर जैन धर्म का प्रचार किया। मुनि ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य के ११९९ वर्ष बीतने पर कुमारपाल नामक एक प्रतापी नरेश के होने की भविष्यवाणी की।" । जिनप्रभसूरि द्वारा उल्लिखित सिद्धसेनदिवाकर और विक्रमादित्य [संवत् प्रवर्तक ?] सम्बन्धी कथा हमें निम्नलिखित ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है १--प्रभावकचरित'-प्रभाचन्द्राचार्य (ई० सन् १२७८) २-प्रबन्धचिन्तामणि' मेरुतुङ्ग (ई० सन् १३०५) ३-पुरातनप्रबन्धसंग्रह'-अज्ञात (ई० सन् १५ वीं शती लगभग) ४ कथावलो-भद्रेश्वरसूरि (ई० सन् १२३५ के पूर्व) ५--प्रबंधकोश-राजशेखरसूरि (ई० सन् १३४८) १. संपा० मुनि जिनविजय-पृ० ५४-६१ २. संपा. वही, पृ० ७ और आगे ३. संपा० वही, पृ० ९-१० ४. संपा० जिनविजय-पृ० १९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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