SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ उत्तर भारत के जैन तीर्थ एवं पंचमहाव्रतों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक चर्चा हुई। महावीर का जामाता और शिष्य जामालि इसी नगरी के कोष्ठक चैत्य में जैन सिद्धान्तों की सत्यता के सम्बन्ध में शंका प्रकट कर प्रथम निह्नव हुआ।' यह घटना महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के १४ वर्षों पश्चात् घटित हुई मानी जाती है। कौशाम्बी नरेश जितशत्रु के पुरोहित काश्यप-पुत्र कपिल के सम्बन्ध में जैन साहित्य में विस्तार से चर्चा है इसी प्रकार जिनप्रभ द्वारा स्कन्दाचार्य, भद्र, ब्रह्मदत्त और क्षल्लककुमार आदि के सम्बन्ध में उल्लिखित कथानकों की जैन परम्परा में विस्तार से चर्चा प्राप्त हो जाती है। परन्तु ये कथानक इतिहास की दृष्टि से महत्त्वहीन हैं। जिनप्रभ ने यहां स्थित सम्भवनाथ जिनालय और उसे अलाउद्दीन खिलजी के हब्बस नामक सेनापति द्वारा नष्ट किये जाने की जो चर्चा की है। वह घटना उनके समसामयिक होने के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने यहाँ स्थित बौद्ध स्मारकों का भी उल्लेख किया है। प्राचीन काल में यह नगरी बौद्ध धर्म के केन्द्र के रूप में विख्यात रही। बौद्धों का प्रसिद्ध जेतवनविहार भी यहीं स्थित था। चीनी यात्रियों ने भी यहाँ बौद्ध संघारामों के उपस्थिति की सूचना दी है। जिनप्रभ ने इस नगरी के समुद्रवंशीय और बौद्ध धर्मावलम्बी जिन राजाओं का १. जिट्ठा सुदंसण जमालिऽणुज्ज सावत्थि तिदुगुज्जाणे । पंच सया य सहस्सं ढंकेण जमालि मुत्तुणं ।। आवश्यकभाष्य-१२६ जमालिप्रभवानां निवानां उत्पत्तिस्थानं श्रावस्ती, ......... । . आवश्यकसूत्रवृत्ति (मलयगिरि) पृ० ४०१ २. चउदस वासाणि तया जिणण उप्पाडियस्स नाणस्स । तो बहुरयाण टिट्ठी सावत्थी समुप्पन्ना ॥ आवश्यकभाष्य-१२५ ३. उत्तराध्ययननियुक्ति, पृ० २३७-३८ उत्तराध्ययनचूर्णी, पृ० १६९; ४. द्रष्टव्य-मेहता और चन्द्रा-पूर्वोक्त, पृ० ७८०-८१ । ५. मलालशेकर-पालिप्रापरनेम्स, भाग २, पृ० ११२६ । ६. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy