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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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विस्तृत उल्लेख मिलता है। जैन मान्यतानुसार ७वें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ एवं २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का इस नगरी में जन्म हुआ, इसीलिए यह नगरी एक जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुई । जिनप्रभसूरि ने भी कल्पप्रदीप के अन्तर्गत इस नगरी का एक जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख किया है और इसके सम्बन्ध में जैन परम्परा और अनुश्रुतियों के रूप में प्रचलित कथानकों एवं इसकी समसामयिक स्थिति का सुन्दर वर्णन किया है । उनके विवरण की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं
'दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्र के मध्य खंड में काशी जनपद स्थित है, जिसकी राजधानी वाराणसी उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर बसी हुई है । वरुणा और असी नाम की दो नदियाँ यहाँ गंगा में मिलती हैं, इसीलिए इसका नाम वाराणसी पड़ा । ७वें तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्वनाथ और २३वें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ का इस नगरी में जन्म हुआ । सुपार्श्व - नाथ के पिता का नाम सुप्रतिष्ठ और माता का नाम पृथ्वीदेवी था । पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। इसी नगरी में रहने वाले जयघोष एवं विजयघोष नामक दो ब्राह्मण भ्राताओं ने प्रसंगवश जैन मुनि की दीक्षा ग्रहण कर ली । नन्द नामक एक नाविक ने मुनि धर्मरुचि की विराधना की, जिसके परिणामस्वरूप उसने छिपकली, हंस और सिंह के रूप में जन्म लिया तथा अन्त में इसी नगरी का राजा हुआ । एक बार पिछले जन्मों का स्मरण आने पर उसने मुनि धर्म रुचि से दीक्षा ले ली । इसी नगरी के तिन्दुक उद्यान में रहने वाले बल नामक एक जैन मुनि ने ब्राह्मणों द्वारा किये गये उपहासों को सहन किया, बाद में ब्राह्मणों ने उनसे अपने कुकृत्यों के लिये क्षमा मांगी | आवश्यक नियुक्ति में यहाँ से सम्बन्धित दो कथायें हैं - पहली कथा नन्दश्री नामक एक जैन साध्वी की है और दूसरी धर्मघोष एवं धर्मयश नामक जैन मुनियों की ।
अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र अपना राज्य दान में देकर इस नगरी में अपनी पत्नी और पुत्र के साथ विक्रयार्थ आये ।
यहाँ कीट पतंग, पापी मनुष्य, चतुर्विध हत्या करने वाले मनुष्य आदि सभी मृत्योपरान्त शिवपद ( मोक्ष ) प्राप्त करते हैं । इस नगरी
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