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उत्तर भारत के जैन तीर्थ
की। ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ के उपसर्ग को दूर किया अतः यह कहा जा सकता है कि अहिच्छत्रा नगरी में ही कमठ ने पार्श्वनाथ पर उपसर्ग किया और धरणेन्द्र ने उसे दूर कर उनकी महिमा वर्णित की। जिनप्रभसूरि ने भी इसी बात को ही लिखा है। ___ सर्पफण के छत्र से युक्त पार्श्वनाथ की प्रतिमायें हमें कुषाण काल से ही प्राप्त होने लगती हैं, परन्तु पार्श्वनाथ की वे प्रतिमायें जिनमें उन पर कमठ से उपसर्ग को दर्शाया गया है, ई० सन् की छठी शताब्दी से पूर्व की नहीं मिली हैं । ये प्रतिमायें वादामी, ऐहोल ग्यारसपुर और अथूणा, आदि स्थानों से प्राप्त हुई है और ये छठीं से ११ वीं शताब्दी तक की हैं।
यहां उत्खनन से जैन प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। इनमें से कुछ प्रतिमायें कुषाणकालीन अभिलेखों से युक्त हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अहिच्छत्रा कुषाण कालमें एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित रहा। जिनप्रभसूरि ने भी यहां पार्वनाथ का एक प्राचीन चैत्य होने का उल्लेख किया है। उन्होंने यहाँ के जिन लौकिक तीर्थों का नामोल्लेख किया है वे ब्राह्मणीय परम्परा से १. [i) अट्टावय जिते गयग्गपयए य धम्मचक्के ग । पास रहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि ।।
-आचाराङ्गनियुक्ति ॥३३५।। (ii] अहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने,....।
आचाराङ्गटीका [शीलांकाचार्य] भाग-२, पृ० ४१८ २. ढाकी, एम०ए० – 'सान्तरा स्कल चर्स', जर्नल ऑफ इंडियन सोसाइटी
आफ ओरियण्टल आर्ट, जिल्द ४, [१९७०-७१ ई०], पृ० ७८-९७ शाह, यू०पी०-'ए पाश्वनाथ स्कल्पचर इन क्वीवलैंड', द बुलेटिन ऑफ द क्वीवलैड म्यूजियम ऑफ आर्ट, जिल्द–५-६, दिसम्बर,
१९७० ई०]. पृ० ३०३-३११ ३. बैनर्जी, आर०डी०- "न्यू ब्राह्मी इंस्क्रिप्शन्स ऑफ सीथियन पीरियड,"
इपिग्राफिया इंडिया, जिल्द १०, पृ० १०७
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