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उत्तर भारत के जैन तीर्थ तीर्थोद्धारक देवेन्द्रसूरि और चन्द्रप्रभचरित के रचनाकार नागेन्द्रगच्छीय देवेन्द्रसूरि को अभिन्न माना जा सकता है ।
ग्रन्थकार ने अयोध्या नगरी में स्थित चैत्य में गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी की प्रतिमाओं के होने की बात कही है। चू ंकि ये ऋषभदेव के यक्ष-यक्षी माने जाते हैं, ' अतः यह कहा जा सकता है कि उक्त चैत्य जिन ऋषभदेव को ही समर्पित रहा होगा। जिनप्रभ द्वारा उल्लिखित पार्श्वनाथवाटिका भी जैनों से ही सम्बन्धित रही होगी । उन्होंने यहां स्थित सीताकुंड, सहस्त्रधारा आदि लौकिक तीर्थों का जो नामोल्लेख किया है वे ब्राह्मणीय परम्परा से सम्बन्धित हैं । ग्रंथकार ने यहां घघ्घरदह (घाघरा) एवं सरयू के संगम पर स्वर्गद्वार होनें की बात कही है, जो वस्तुतः यहां का एक प्राचीन और प्रसिद्ध घाट है। गहड़वाल शासक चन्द्र देव ( वि०सं० ११४२-११५७ | ई० सन् १०८५११००) के चन्द्रावतीदानपत्रत्र में भी इसका उल्लेख मिलता है ।
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वर्तमान में यहाँ कई श्वेताम्बर और दिगम्बर जिनालय विद्यमान हैं, जो अर्वाचीन हैं ।
प्रभुः ॥६॥
निर्वास्यान्य गिरश्चिात्तान्यवष्टभ्य स्थिता नृणाम् । यद्वाक् सोऽभूज्जगत्ख्यातः, श्रीमद्धनेश्वरः यद्वा गङ्गा त्रिभिर्मास्तर्क साहित्यलक्षणः । पुनाति जीयाद्विजय सिंहसूरिः स भूतले ||७|| श्रीधनेशपदेसूरिदेवेन्द्राख्यः स्वभक्तितः । पुण्याय चरितं चक्रे, श्रीमच्चन्द्रप्रभप्रभोः ॥ ८ ॥ व्योमस्वानलस्थितिः प्रतिदिशं विक्षिप्य तारौदनं, पीत्वा चन्द्रमहः पयोऽदधदवष्टनं च धात्र्यां करैः । बालार्क: पतदिन्दुकन्दुकमामावास्यासु धृत्वा क्षिपेद्यावत्तावदिकं चरित्रमवनो चान्द्रप्रभं नन्दतात् ||९|| चतुःषट्वयेकसङ्घये च, '१२६४' जाते विक्रमवत्सरे । सोमेश्वरपुरेऽतद्विमास्यां चरितं कृतम् ॥१०॥ चन्द्रप्रभस्वामिचरित की प्रशस्ति
१. तिवारी, मारुतीनन्दन - जैनप्रतिमाविज्ञान, पृ०१६६ २. इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द XIV, पृ० १९४ और आगे ।
३. तीर्थदर्शन, भाग १, पृ० १११
जैन, ज्योतिप्रसाद - आदितीर्थअयोध्या [ लखनऊ १९७९ ई० ] पृ०
४८ और आगे
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