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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन भी प्राप्त होती है, परन्तु उन्होंने प्रतिमाओं को अयोध्या से नहीं अपितु “कान्तीपुरी" से लाने का उल्लेख किया है और देवेन्द्रमुरि को नागेन्द्र गच्छीय बतलाया है। इनका समय ई० सन् की बारहवीं शती का अन्त और तेरहवीं शती का प्रारम्भ माना जाता है।' इस प्रकार दोनों ग्रन्थकारों ने सेरीसा तीर्थ की स्थापना का श्रेय समानरूप से देवेन्द्रसूरि को दिया है। अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि देवेन्द्रसूरि किस गच्छ के थे? जिनप्रभसूरि जहाँ उन्हें नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेव की परम्परा का बतलाते हैं, वहीं कक्कसूरि ने उन्हें नागेन्द्रगच्छीय बतलाया है। चूंकि नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेव की परम्परा में किसी देवेन्द्रसूरि का नाम नहीं मिलता, जबकि नागेन्द्रगच्छीय देवेन्द्र सूरि द्वारा रचित चन्द्रप्रभचरित की प्रशस्ति में जो गुर्वाबली दी गयी है, उसमें अभयदेवसूरि का उल्लेख है, अतः सेरीसा तदादीदं स्थापितं, सत् तीर्थ देवेन्द्रसूरिभिः । देवप्रभावविभवि सम्पन्नजनवाञ्छितम् ।। ___ नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध [रचनाकार-उपकेशगच्छीयकक्कसूरि संपा०-६० भगवानदास हरखचंद, अहमदाबाद, वि० सं० १९८५] प्रस्ताव ४, श्लोक ३२९-३३४ १. देसाई, मोहनलालदलीचन्द-जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, पृ० ३४१ २. नागेन्द्र गच्छे विख्याताः, परमारात्वरयोः तमाः । श्रीवर्द्धमाननामानः, सूरायासूरोया:ऽभवन् । गुणग्रामातिरामो, धरामृसूरिबभूव सः । यदास्यकम लक्रोडे, विक्रीडुवंननश्रियः ॥२॥ सिद्धान्तादित्यमाश्रित्य, कलापूर्णः सुदृत्तभाक् । चन्द्रवस्त्रीतिदः सोऽभूच्चन्द्रसूरिस्ततः परम् ।।३॥ विद्यावल्लीमहावृक्षः, संयमप्रतिमारथः । संसाराब्धिसदायानं, देवसूरिगुरुस्ततः ॥४॥ सिद्धविद्यारसस्पर्शाद, सुवर्णत्वमुपागते । शिवायाभयसूरिणां, वयं सरिमुपास्महे ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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