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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन गुणपरिणदासणं परिणिक्क्रमणं केवलस्स णाणस्स । उप्पत्ती इयपहुदी बहुभेयं खेत्तमंगलयं ॥ २१॥ एदस्स उदाहरणं पावाणगरुज्जयंतचंपादी | आउट्टहत्यपहूदी पणुवीसन्भहियपणसयधर्णाणि ॥ २२ ॥ देहअवट्ठिदकेवलणाणावदृद्धगयणदेसो वा । सेढिघणमेत्तअप्पप्पदेसगदलोयपूरणापुण्णा ॥ २३॥ विस्साणं लोयाणं होदि पदेसा वि मंगलं खेत्तं । स्सिकाले केवलणाणादिमंगलं परिणमति ॥ २४ ॥ - गोम्मटसार' (आचार्य नेमिचन्द्र ई० सन् ११ वीं १२ शती) में कहा गया है क्षेत्र मंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनाम् । इस प्रकार स्पष्ट है कि तीर्थ शब्द के आशय में ही क्षेत्रमंगल शब्द का प्रयोग किया गया है। धीरे-धीरे तीर्थङ्करों के विहारस्थल, पुरातन मुनियों के सिद्धत्त्वप्राप्ति-स्थल, किसी सातिशय जिनप्रतिमा के चमत्कार के कारण प्रसिद्ध स्थल आदि की भी तीर्थ रूप में गणना होने लगी और इसीलिये ये स्थान प्रसिद्ध हुए । यह बात श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से लागू होती है, परन्तु व्यवहार में केवल दिगम्बरों ने ही इस विभाजन को स्वीकार किया है, श्वेताम्बरों ने नहीं । २२ वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ को छोड़कर अन्य सभी तीर्थङ्करों के प्रायः सभी कल्याणक वर्तमान उत्तरप्रदेश और बिहार प्रान्त में ही सम्पन्न हुए हैं, अतः यहां के अधिकांश तीर्थ इसी कोटि में आते हैं । इसके अलावा देश के अन्य भागों में स्थित जैन तीर्थ प्रायः सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र ही हैं । कल्पप्रदीप में उल्लिखित तीर्थस्थान वर्तमान उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक, १ जैन, बलभद्र - भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ, प्राक्कथन, तिलोयपण्णत्ती १/२१-२४ पृ० १० से उद्धृत २. प्रेमी, नाथूराम - जैन साहित्य औरइतिहास, पृ० १८६ | Jain Education International ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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