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________________ तीर्थों का विभाजन अर्थात् तीर्थंङ्करों के जन्म, अभिनिष्क्रमण, विहारभूमि, केवलज्ञान और निर्वाण आदि से सम्बन्धित स्थानों की यात्रा से दर्शनशुद्धि होती है। यहां दर्शनशुद्धि का तात्पर्यं तीर्थयात्रा से प्राप्त पुण्य ही है । ६६ उपरोक्त संदर्भों से स्पष्ट है कि कल्याणक क्षेत्रों के अलावा कुछ ऐसे भी स्थान थे, जो किसी मंदिर या प्रतिमा विशेष के कारण महत्त्वपूर्ण माने जाते थे, जैसे उत्तरापथ में धर्मचक्र, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप, कोशल में जीवन्तस्वामी की प्रतिमा आदि ।' ऐसे स्थानों की यात्रा कर जैनी बोधिलाभ प्राप्त करते थे । ३ कुछ प्राचीन ग्रन्थकारों ने तीर्थ के स्थान पर ' क्षेत्रमंगल' शब्द का प्रयोग किया है । षट्खण्डागम ( प्रथम खंड, पृ० २८ ) में क्षेत्रमंगल के सम्बन्ध में इस प्रकार विवरण दिया गया है तत्र क्षेत्र मंगलं गुणपरिणतासन - परिनिष्क्रमण- केवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणक्षेत्रादिः । तस्योदाहरणम् - उर्जयन्त - चम्पापावानगरादिः । यही बात तिलोयपण्णत्तो ( यतिवृषभ - ई० सन् छठीं शती) में भी कही गयी है ९. उतरावहे धम्मचक्कं मथुराए देवणिम्मिय थूभो, कोसलाए व जियंतपडिमा तित्थकराण वा जम्मभूमीओ निशीथचूर्णी, खंड ३, पृ० ७९ २. तित्थक राण य तिलोगपूइयाण जम्मण-णिक्खमण विहार-केवलप्पादनिव्वाणभूमीओ य पेच्छंतो दंसणसुद्धि का हिसि, तहा अण्णोष्णसाहुसमागमेण य सामायारिकुसलो भविस्ससि, सव्वापुब्वे य चेइए वंदतो बोहिलाभं निज्जित्तेहिसि निशीथचूर्णी, खंड ३, पृ० २४ """ क षट्खंडागम, संपा० डा० हीरालाल जैन प्रथम खंड ( अमरावती, ई० 1 सन् १९३९) * तिलोयपण्णत्ती- - भाग १ - २; संपा० ए० एन० उपाध्ये, हीरालाल जैन, ( सोलापुर, ई० सन् १९४३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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