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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
६५ की छठी शती निर्धारित किया है।' भद्रबाहु 'द्वितीय' से पूर्व भी नियुक्तियां लिखी गयी थों, परन्तु वे आज उपलब्ध नहीं है, केवल कुछ ग्रन्थों में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर आम्नाय ?) के ग्रन्थ मूलाचार में भी आवश्यकनियुक्तिगत कई गाथायें हैं, इससे भी स्पष्टः होता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय का स्पष्ट भेद होने के पूर्व भी नियुक्ति की परम्परा थी । इस प्रकार यह निश्चयपूर्वक कहा जा. सकता है कि जैनागम की व्याख्या का नियुक्ति नामक प्रकार प्राचीन है।४ चकि नियुक्तियों में ही सर्वप्रथम हमें तीर्थविषयक मान्यता का परिचय मिलता है, अतः यह मानना अनुचित न होगा कि ई० सन् की पूर्व या प्रारम्भ की शताब्दियों में ही जैनों में तीर्थ सम्बन्धी मान्यता का जन्म हो चुका था।
आचाराङ्गनियुक्ति में कहा गया हैजम्माभिसेय-निक्खमण चरण-नाणुप्पया य निव्वाणं'। दियलोअभवण-मंदर-नंदीसर-भोमनगरेसु ॥३३१॥ अट्ठावय-उज्जिते, गयग्गपए य धम्मचक्के य ।
पास रहावत्तनगं, चमरुप्पायं च वंदामि ॥३३२।। अर्थात् जन्मकल्याणकस्थान, जन्माभिषेकस्थान, दीक्षास्थान, श्रमणावस्था की विहारभूमि, देवलोक, असुर आदि के भवन, मेरुपर्वत, नन्दीश्वर के चैत्यों और व्यन्तर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिन प्रतिमाओं को अष्टापद तथा उर्जयन्त गजाग्रपद, धर्मचक्र, अहिच्छत्रा स्थित पार्श्वनाथ, रथावर्त पर्वत, चमरोत्पात आदि इन नामों से प्रसिद्ध जैन तीर्थों में स्थित जिन प्रतिमाओं को मैं वन्दन करता हूँ।
निशीथचूर्णी में भी कहा गया है कि
तित्थकराण य तिलोगपूइयाण जम्मण णिक्खमण-विहार-केवल्लप्पाद-निव्वाणभूमीओ य पेच्छंतो सणसुद्धि काहिसि,...।
......निशीथचूर्णी, खंड ३, पृ. २४ । १. मेहता, मोहनलाल-पूर्वोक्त, भाग-३, प्रस्तावना, पृ० ६९। २. वही, पृ० ६८, पादटिप्पणी। ३. वही। ४. वही।
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