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भारत पर मुस्लिम राज्य ]
[ ७६ पूर्ण रणकौशल से हर्षविभोर हो चालुक्यराज विक्रमादित्य द्वितीय ने उसे "दक्षिणापथ साधार", "चालुक्य कुलालंकार", "पृथ्वीवल्लभ और अनिवर्तकनिवर्तयित" (पीछे की ओर नहीं लौटने वाले दुर्जेय शत्रुओं को भगा देने वाला)-इन चार सर्वोच्च सम्मानास्पद उपाधियों अथवा विरुदों से विभूषित किया ।' पुलकेशिन् और राष्ट्रकूट वंशी राजा दन्तिदुर्ग के शौर्य की अरबों पर ऐसी धाक जम गई कि अपनी इस घोर पराजय के पश्चात् ईसा की दशवीं शताब्दी के अन्तिम चरण तक उन्होंने भारत पर बड़े पैमाने के आक्रमण का साहस ही नहीं किया।
__ रघुवंशी प्रतिहार राजा नागावलोक की प्रशंसा में प्रतिहार राजा भोजदेव की ग्वालियर प्रशस्ति में निम्नलिखित उटैंकित हैं :
तद्वंशे प्रतिहारकेतनभृति त्रैलोक्य रक्षास्पदे, . देवो नागभटः पुरातनमुनेर्मूतिरभूवाद्भुतम् ।
येनासौ सुकृतप्रमाथिबलुचम्लेच्छाधिपाक्षौहिणी,
क्षुन्दानस्फुरदुग्रहेति रुचिरैर्दोभिश्चतुभिर्बभौ ॥४॥ इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रतिहारवंशी राजा नागावलोक ने जुनद के सेनापतित्व में मध्यप्रदेश एवं दक्षिणापथ की ओर बढ़ती हुई विशाल अरब सेना के साथ युद्ध किया। अरब सेना को अपूरणीय क्षति पहुंचा बुरी तरह पराजित करने और उसे पुनः सिन्ध की ओर पलायन करने के लिये बाध्य करने में पुलकेशिन् और राष्ट्रकूट वंशीय राजा दन्तिदुर्ग की भांति कन्नौजपति रघुवंशी प्रतिहार राजा नागावलोक का भी अत्यधिक महत्वपूर्ण सक्रिय योगदान रहा। कन्नोजपति नागावलोक अपर नाम अामराज, जैनधर्मावलम्बी था । इसका परिचय इस ग्रन्थमाला के तृतीय पुष्प में दिया जा चुका है।
इस प्रकार पुलकेशिन्, दन्तिदुर्ग और नागावलोक जैसे प्रबल पराक्रमी देशभक्त राजाओं ने भारत पर आक्रमण करने वाली अरब सेनाओं की बढ़ती हुई शक्ति को कुचल कर उनके मनोबल को ऐसा क्षीण कर दिया कि इस पराजय के पश्चात् लगभग ढाई शताब्दियों तक लन्द्रोंने भारत की ओर अांख तक उठाने का साहस नहीं किया।
इस्लाम के अभ्युदय से लेकर उसके प्रसार और भारत पर आक्रमणों का बड़े विस्तार के साथ विवरण इस दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है कि मुसलमानों
१. (अ) राजपूताने का इतिहास, पहला खण्ड, पृ० २५६
(ब) नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाग १, पृष्ठ २१०-११ २. आकियालोजिकल सर्वे आफ इण्डिया, ई० सन् १९०३-४ की रिपोर्ट, पृष्ठ २८० ३. विस्तार के लिये देखिये, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ६५६-६१
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