SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अपने अन्तिम श्वास तक संहार करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।' दाहक अग्निगोलक नफ्थे जैसे अभिनव एवं विशिष्ट अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित शत्रु सेना को भीषण क्षति के उपरान्त भी अन्ततोगत्वा विजयश्री और इस प्रकार के दूर मारक शस्त्रास्त्रों के अभाव-स्वरूप सिन्धुराज दाहिर की सेना को पराजय प्राप्त हुई। दाहिर की सेना को परास्त कर कासिम ने अपनी सेना के साथ अजदर अर्थात् ऊच की अोर प्रयारण किया। सिन्धराज की सेना की पराजय और अरब सेना के अपनी ओर प्रयाण के समाचार सुनते ही दाहिर का पुत्र ऊच के गढ़ को रिक्त कर अपनी सेना के साथ ब्राह्मणाबाद की ओर पलायन कर गया। अपने पुत्र को क्लीब की भांति क्षात्रधर्म से विमुख हुआ सुन दाहिर की महारानी ने अपने पति का अनुसरण करते हुए सैन्य संचालन का कार्य अपने कंधों पर लिया और १५,००० सैनिकों को साथ ले वह शत्रुओं का संहार करने के दृढ़ संकल्प के साथ रणांगण की ओर बढ़ी । वीरगति प्राप्त अपने पतिदेव का प्रतिशोध लेने के लिये वह रणांगण में आततायियों के सम्मुख जा डटी । सती धर्म को सही अर्थों में चरितार्थ करते हुए उसने स्वर्गस्थ पति का तत्काल अनुगमन करने के लिए अग्निस्नान के स्थान पर शत्रुओं का संहार करते हुए असिधारा से प्रवाहित आततायियों के रक्त से स्नान करते हुए रणांगण में प्रात्मयज्ञ करने का मार्ग चुना। रणचण्डी का रूप धारण किये महारानी भूखी सिंहिनी की भांति शत्रुसैन्य पर टूट पड़ी और बड़ी तीव्र गति से शत्रुओं का संहार करने लगी। उस क्षत्राणी के अदृष्टपूर्व शौर्य एवं युद्ध-कौशल को देख शत्रुसेना हत-प्रभ हो गई । अन्ततोगत्वा अरबी धनुर्धरों द्वारा की गई अग्निगोलक नफ्थों से संयुत तीरों की धुआंधार वर्षा से रणांगण ने अग्नि-ज्वालानों से धुकधुकाती-लपलपाती एक अति विशाल भीषण भट्टी का रूप धारण कर लिया। नफ्थों की आग में जलते-झुलसते अपने सैनिकों को इस प्रकार की अवशावस्था से उबारने का अन्य कोई उपाय न देख उस क्षत्राणी ने अपनी सेना को नगर के सुदृढ़ गढ़ में मोर्चे सम्हाल कर शत्रुओं के संहार का अादेश दिया। भीषण युद्ध के अनन्तर अपनी अवशिष्ट सेना के साथ उस वीरांगना ने गढ़ में प्रवेश कर अपने सैनिकों को मोर्चे सम्हाल कर शत्रुओं पर शस्त्रास्त्रों की वर्षा करने का आदेश दिया। सभी मोर्चों पर अपने योद्धाओं का उत्साह बढ़ाती हुई सिन्धराज्य की राजेश्वरी ने सधे सरों की वर्षा एवं विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्रों के प्रहारों से शत्रुसेना का संहार करना प्रारम्भ किया। अनेक मास तक कासिम ने गढ़ को चारों ओर से घेरे रखा। उसने गढ़ को तोड़ने के संकल्प के साथ अनेक बार गढ़ में प्रविष्ट होने के प्रयास किये किन्तु प्रत्येक बार उसे गढ़विजय के स्थान पर सैनिक क्षति का ही मुख देखना पड़ा । अन्ततोगत्वा गढ़ में संचित अन्न एवं युद्धसामग्री के समाप्तप्रायः हो जाने पर उस क्षत्राणी ने अबलायों को जौहर की अनुमति प्रदान कर गढ़ के द्वार खुलवाये और केसरिया परिधान पहने अपनी १. बिग, फिरिश्ता, जि० ४, पृ० ४०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy