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भारत पर मुस्लिम राज्य ] पहुँचा । कराल काल की भांति अपनी ओर बढ़ते हुए दाहिर और उसके योद्धाओं पर चारों ओर से अरबों की धनुर्धर सेना अपने धनुषों की प्रत्यंचाओं पर जलते हुए नफ्थों (ज्वलनशील द्रव पदार्थ) से निर्मित अग्निवर्षक गोलों से सज्जित तीरों की वर्षा करने लगी। प्राणों को हथेली में रखे दाहिर शत्रु सेना का संहार करता हुआ अद्भुत शौर्य के साथ निरन्तर आगे की ओर बढ़ता ही चला जा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि विजयश्री दाहिर का वरण करने ही वाली है। इस प्रकार की निर्णायक घड़ियों में अरब तीरंदाज के तीर से जुड़ा जलता हुआ नफ्था सिन्धुराज दाहिर के श्वेतवर्ण हाथी के मुख पर तीर के साथ गहराई तक आ घुसा। अग्निगोलक-नफ्थे की ज्वालाओं के दाह से दाहिर का हाथी तिलमिला उठा और पानी में डुबकी लगाने हेतु द्रुत गति से नदी की ओर भागा। राजा के हाथी को सहसा रणांगण छोड़ भागते देख सिन्धराज के अधिकांश सैनिकों ने समझा कि उनका स्वामी आहत हो रण-भूमि से पलायन कर रहा है। अत: वे भी शत्रु को पीठ दिखा पलायन करने लगे। दाहिर का युद्धोन्मत्त गजराज नदी में डुबकियां लगा अग्निगोलक की ज्वालाओं का शमन... कर शत्रुसैन्य को कुचलता हुआ पुनः रणांगण में आ डटा । दाहिर ने अपने सैनिकों को शत्रुओं का संहार करने के लिये ललकारा। अपने राजाधिराज को शत्रुओं पर टूटते देख सिन्धराज के सैनिक भी पुनः सुगठित हो अरब सेना पर टूट पड़े। दोनों ओर की सेनाएँ प्राणपण से जूझने लगीं । युद्ध घोषों के गगनभेदी घोषों के बीच युद्ध पुनः प्रचण्डता की पराकाष्टा को पार करने लगा। सहसा एक तीर सिन्ध के महाराजा दाहिर के वक्ष-स्थल में लगा
और गहराई तक घुस गया। इस मर्मभेदी प्रहार से पाहत हो दाहिर पृथ्वी पर गिर पड़ा। यद्यपि घाव बड़ा घातक था तथापि अपनी मातृभूमि की अपने अन्तिम श्वास तक रक्षा के दृढ़-संकल्प के साथ महाराजा दाहिर तत्काल उठ खड़ा हुआ और अश्व पर आरूढ़ हो दांतों से घोड़े की लगाम थामे विकराल भैरव की भांति दोनों हाथों से अपने सम्मुख एवं अपने दोनों पावॉ की ओर जूझ रहे शत्रुसैन्य पर खड्ग-प्रहार करने लगा । दाहिर द्वारा दोनों हाथों से किये तीक्ष्ण तलवारों की तेज धारों का तीखा पानी पी कर सैकड़ों शत्रु रुण्ड-मुण्डविहीन हो रणांगण की शय्या पर सदा-सर्वदा के लिए, कभी न टूटने वाली प्रगाढ़ निद्रा में धराशायी होने लगे। प्रलयकाल की काली-काली सघन घनघटाओं में दमकती हुई विद्युल्लताओं की भांति दाहिर के दोनों हाथों की तलवारें रणांगण में चारों ओर शत्रुसमूह की ग्रीवाओं पर कौंधने लगीं। रणांगरण मुण्डविहीन अश्वों एवं अश्वारोहियों की लहूलुहान लोथों से पट-सा गया। हताहत सुभटों एवं अश्वों के अंग-प्रत्यंग से प्रवाहित लाल-लाल लहू की धाराओं से रक्त वर्ण बना रणांगण मच्छ-कच्छ संकुल लालसागर-सा प्रतीत होने लगा। अगणित शत्रुओं को मृत्यु की गोद में सुला देने के अनन्तर अन्ततोगत्वा वीरवर दाहिर भी आततायियों से मातृ-भूमि की रक्षा हेतु अपने प्रलम्ब भुजदण्डों में कस कर पकड़ी हुई तेगों के तीव्र प्रहारों द्वारा शत्रुओं का
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