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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अब तो एकाकी ही अनेक बार सिरोही जाना पड़ता था। यों तो अनेक प्रकार के व्यवसायों के रहस्यों को समझने की अोर लोकचन्द्र की रुचि थी, किन्तु मोतियों के व्यवसाय से उसका विशेष लगाव हो गया था, उसे जब भी सिरोही जाना पड़ता वह जोहारियों की पेढ़ी पर कुछ समय के लिये अवश्यमेव बैठता और अच्छे-बुरे मोतियों की परख किस प्रकार की जाती है, इस कला को सीखने का प्रयास करता। शनैः शनैः वह मोतियों का अच्छा पारखी बन गया।
एक दिन जिस समय लोकचन्द्र एक जौहरी की दुकान पर बैठा हुआ मोतियों की परीक्षा कर रहा था, उस समय सिरोही निवासी ग्रोसवाल जाति के प्रोधवजी नामक श्रेष्ठि ने मोतियों की परीक्षा में निरत-निमग्न प्रियदर्शी लोकचन्द्र को देखा। युवक लोकचन्द्र उस श्रेष्ठि के मन को भा गया। जब बहुमूल्य मोतियों को एक ओर तथा अल्प मूल्य के मोतियों को दूसरी ओर छांटते हुए लोकचन्द्र को ओधवजी ने देखा तो उन्होंने मन ही मन कोई संकल्प किया। लोकचन्द्र के चले जाने पर प्रोधवजी ने जौहरी से उस युवक का नाम, गांव, जाति, पिता, उनके व्यवसाय प्रादि के सम्बन्ध में पूछा। जौहरी ने यथेप्सित जानकारी प्रदान करने के पश्चात् कहा-"लड़का बड़ा ही होनहार है।'
जौहरी से लोकचन्द्र के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेने के पश्चात् अोधवजी ने अपनी धर्मपत्नी को कहा कि उसने अपनी पुत्री सुदर्शना के लिए एक अतीव सुन्दर और सुयोग्य वर देखा है । लोकचन्द्र के विषय में पूरा विवरण सुनकर श्रेष्ठिपत्नी भी बड़ी प्रसन्न हुई। दूसरे ही दिन अरहटवाड़ा जाकर बात पक्की कर लेने का श्रेष्ठ दम्पति ने निश्चय किया।
अोधवजी दूसरे ही दिन इस दृढ़ विश्वास के साथ कि मनचिन्तित कार्य सिद्ध हो जायेगा-श्रीफल और रुपया लेकर अरहटवाड़ा हेमा भाई के घर पहुंचे। दोनों परस्पर एक दूसरे के उत्तम कुलशील स्वभाव आदि से पूर्व परिचित थे। अतः प्रोधव जी का प्रस्ताव लोकचन्द्र के माता-पिता ने बिना किसी प्रकार की ननु-नच के स्वीकार कर लिया। प्रोधवजी ने लोकचन्द्र के भाल पर कुंकुम चावल का तिलक लगा, उसे श्रीफल के साथ रुपया भेंट स्वरूप प्रदान किया। दोनों समधी इस सम्बन्ध के सम्पन्न हो जाने से परम प्रसन्न थे। वि० सं० १४८७ के माघ मास में लोकचन्द्र का सुदर्शना के साथ विवाह सम्पन्न हुया । सर्वगुण सम्पन्ना सुदर्शना के साथ दाम्पत्य सुख का वे उपभोग करने लगे। उनके स्वाध्याय का क्रम भी अनवरत रूप से चलता रहा । धार्मिक कार्यों में भी वे बड़े उत्साह के साथ भाग लेते। धार्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय एवं नियमित ध्यान-साधना के परिणामस्वरूप संसार की असारता एवं क्षणभंगुरता का बोध हो जाने के कारण उनके अन्त:करण में विरक्ति का बीज उनकी युवावस्था में ही अंकुरित हो चुका था किन्तु अपने कर्तव्य के निर्वहन हेतु न्याय-नीति पूर्वक व्यवसाय एवं परमावश्यक सांसारिक कार्यों का बड़ी
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