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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
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पुत्ररत्न की प्राप्ति को महान् पुण्योदय का प्रतिफल समझते हुए धर्माराधन में और भी अधिकाधिक समय लगाना प्रारम्भ कर दिया। पांच वर्ष की वय हो जाने पर बालक लोकचन्द्र को अरहटवाड़ा की पाठशाला में पढ़ने के लिये भेजना प्रारम्भ कर दिया। कुशाग्रबुद्धि बालक लोकचन्द्र ने बड़ी रुचि के साथ पढ़ना प्रारम्भ किया। आयु के बढ़ने के साथ-साथ लोकचन्द्र की लिखने-पढ़ने की रुचि भी उत्तरोत्तर बढ़ती गई और १५ वर्ष की वय को प्राप्त होते-होते तो उसने स्थानीय विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा में पारीणता प्राप्त कर ली।
धार्मिक और नैतिक सुसंस्कार बालक लोकचन्द्र को अपने माता-पिता से जन्म घुट्टी के साथ ही प्राप्त होते रहे थे। शैशवकाल में लोकचन्द्र अपनी ममतामूर्ति माता के साथ और बाल्यकाल तथा किशोर वय में अपने धर्मनिष्ठ पिता के मुनिदर्शन एवं व्याख्यान श्रवण के लिये जाते । बाल वय में ही लोकाशाह ने सामायिक, प्रतिक्रमण, भक्ति के रस से ओतप्रोत स्तवन, स्तोत्र आदि कण्ठस्थ कर लिये । लेखन कला में तो लोकाशाह ने बाल्यकाल में ही अद्भुत निष्णातता प्राप्त कर ली थी। धर्म के प्रति लोकाशाह की ऐसी प्रगाढ़ निष्ठा थी कि वे प्रति दिन नियमित रूप से सामायिक और पाक्षिक पर्व के अवसर पर सायंकालीन प्रतिक्रमण करने में सदा अग्रसर रहते । वे अवकाश मिलते ही अपने पिता के कारोबार में उनका हाथ बटाते। सामायिक के समय लोंकाशाह का स्वाध्याय का क्रम क्रमशः बढ़ता ही गया।
_चौधरी (नगर श्रेष्ठि) श्री हेमा भाई अरहटवाड़ा के एक सुसम्पन्न सद्गृहस्थ थे। उनके गवाड़ में गायें थीं, भैंसें थीं, दूध दही, घी और खाने-पीने की किसी प्रकार की कमी का उस सम्पन्न घर में कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।
जब १५ वर्ष की अवस्था में ही पूर्णतः सुस्वस्थ लोकचन्द्र युवावस्था को प्राप्त बलिष्ठ युवक की भांति प्रतीत होने लगे तो अनेक श्रेष्ठियों के यहां से उनके सगाई सम्बन्ध (वाग्दान) के प्रस्ताव आने लगे। उस समय तक हेमा भाई ने अपने पुत्र के मोतियों के समान अतीव सुन्दर अक्षरों को देख कर अपने कारोबार के नामे (लेखे-जोखे) का काम पूरी तरह लोंकाशाह को सम्हला दिया था। अपने कारोबार के सम्बन्ध में उन्हें प्रायः सिरोही जाना पड़ता था। प्रारम्भ में वे अपने पुत्र लोकचन्द्र को अपने साथ ले जाते और विभिन्न व्यवसायों के व्यापारियों से उसका परिचय करवाते । हेमा भाई ने जब यह देखा कि उनका पुत्र अपने व्यवसाय को चलाने, सिरोही आदि नगरों के व्यापारियों से सम्पर्क साधने, उनसे सौहार्द बढ़ाने, अपनी पटुतापूर्ण वाक् माधुरी से प्रत्येक व्यवसायी एवं सद्गृहस्थ का मन जीतने में सक्षम है तो उन्होंने अपने सम्पूर्ण कारोबार के साथ-साथ सिरोही नगर के व्यापारियों से सम्बन्धित कार्य का भार भी लोकचन्द्र के कन्धों पर रख दिया। लोकचन्द्र को
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