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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
लाया जाता तब तक लोंकाशाह के अद्यावधि उपलब्ध जीवन परिचय पर ही सन्तोष कर लेने के अतिरिक्त कोई मार्ग दृष्टिगोचर नहीं होता।
अन्य किसी प्रकार का समुचित उपाय न देखकर अवशावस्था में केवल औपचारिकता का निर्वहन करने हेतु स्व० मुनि श्री मरिणलालजी महाराज द्वारा अपने "जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास अने प्रभु वीर पट्टावली" नामक ग्रन्थ में उल्लिखित लोकाशाह के जीवन परिचय का और 'एक पातरिया' (पोतियाबन्ध) गच्छ की पट्टावली में डब्ध लोकाशाह के प्रति संक्षिप्त एवं अधिकांश रूपेण अपर्याप्त वैयक्तिक व पारिवारिक जीवन परिचय का सार मात्र प्रस्तुत ग्रन्थ में, दिया जा रहा है।
पाठकों को इस तथ्य से अवगत कराना अपना कर्त्तव्य समझ कर उपरिलिखित दोनों कृतियों के आधार पर लोकाशाह के जीवन परिचय का सारांश प्रस्तुत करने से पूर्व यह स्पष्ट किया जा रहा है कि कडुवा मत पट्टावली में, अनुमानतः विक्रम सं० १४८० से वि० सं० १५६३ तक की अवधि में विराजमान आगम मर्मज्ञ वयोवृद्ध विद्वान् पंन्यास हरिकीर्ति के मुख से लोंकाशाह के सम्बन्ध में जो कुछ थोड़ा बहुत कहलवाया गया है, उससे अधिकांश कृतियों में उल्लिखित लोकाशाह सम्बन्धी काल निर्देश असत्य सिद्ध हो जाता है। अतः लोकाशाह के प्रस्तुत किये जा रहे जीवन परिचय में जहां-जहां सम्वतों का निर्देश है, उसे प्रामाणिक न समझा जाय ।
कच्छ नानी पक्ष के यति (गोरजी) श्री सुन्दरजी के पास लगभग विक्रम की १६वीं शताब्दी की कल्प सूत्र की प्रति के पीछे संलग्न दो प्राचीन पत्रों पर लिखित लोकाशाह के संक्षिप्त जीवन वृत्त को लींबड़ी (मोटा उपाश्रय) सम्प्रदाय के श्री मंगलजी स्वामी के शिष्य श्री कृष्णजी स्वामी ने लिपिबद्ध कर उसकी प्रतिलिपि मुनि श्री मणिलालजी की सेवा में भेजी थी, उस प्रति के आधार पर मुनि श्री मणिलालजी म० ने अपनी उक्त प्राचीन इतिहास नामक कृति में लोकाशाह का जीवन वृत्त इब्ध किया है। उसी के आधार पर लोकाशाह का जो जीवन वृत्त सार रूप दिया जा रहा है, वह इस प्रकार है
"भूतपूर्व सिरोही राज्य के अरहटवाड़ा नामक नगर के निवासी सम्मानास्पद चौधरी पद से विभूषित ओसवाल जाति के श्रेष्ठिवर्य श्री हेमाभाई की धर्मनिष्ठा पतिपरायणा धर्म पत्नी श्रीमती गंगाबाई की कुक्षी से वि० सं० १४८२(ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्रतीत होता है कि यहां वि० सं० १४७२ होना चाहिये) की कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन श्री लोकाशाह का जन्म हुआ। लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् प्रोसवाल दम्पत्ति को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी अतः उनके हर्ष का पारावार न रहा। नियमित रूप से सामायिक, प्रतिक्रमरण, प्रत्याख्यान, पौषध आदि के माध्यम से यथाशक्ति धर्माराधन में निरत गंगाबाई ने
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