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सामान्य श्रुतघर काल खण्ड २ ]
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सब कार्य किसी सुयोग्य श्रावक के द्वारा ही करवाये जायं और कोई भी साधु प्रतिष्ठाविषयक कार्य न करे ।
इसके विपरीत तपागच्छ खरतरगच्छ आदि कतिपय गच्छों के विद्वानों ने अपनी-अपनी नवीन प्रतिष्ठापद्धतियों का निर्माण कर प्रतिष्ठाचार्य के शरीर पर सवा (सुहागिन स्त्रियों) द्वारा तैल मर्दन पीठी करने आदि निर्वाण कलिका में उल्लिखित विधानों को तो सदा के लिये छोड़ छिटका दिया किन्तु “प्रतिष्ठा कराते समय प्रतिष्ठाचार्य के कर में स्वर्णकंकरण एवं करांगुलि में स्वर्ण- मुद्रिका अवश्यमेव धारण करे" इस विधान को अपनी-अपनी नवनिर्मित प्रतिष्ठा-पद्धतियों में यथावत् ही रखा । तपागच्छ के विद्वान् उपाध्याय धर्मसागरगरण ने अपनी वि० सं० १६२६ की "प्रवचनपरीक्षा" नामक कृति में प्रतिष्ठाचार्य द्वारा प्रतिष्ठा के प्रसंग में स्वर्णकंकरण एवं स्वर्ण मुद्रिका धारण के विधान को समुचित ठहराते हुए लिखा है - "थोड़े से समय के लिये प्रतिष्ठाचार्य द्वारा स्वर्णकंकण एवं मुद्रिका का धारण करना परिग्रह की परिभाषा में नहीं आता, अतः यह विधान समुचित ही है ।"
इस उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि अनेक प्रकार की नवीन प्रतिष्ठा पद्धतियों अथवा विधियों के निर्मारण के अनन्तर भी निर्वाण कलिका में उल्लिखित अनेक विधान श्रमणाचार एवं शास्त्रों के नितान्त विपरीत होते हुए भी जैन धर्म संघ की विभिन्न सम्प्रदायों- आम्नायों अथवा गच्छों में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहे । इसका मूल कारण यही प्रतीत होता है कि वर्तमान काल में जितनी भी प्रतिष्ठाविधियां उपलब्ध होती हैं, उनकी जननी वस्तुतः निर्वाण कलिका ही है । निर्वाण कलिका की अमिट छाप इन सब प्रतिष्ठा पद्धतियों पर वज्ररेखा की भांति आज भी अंकित है । श्रागमों में यदि कहीं प्रतिष्ठा अथवा प्रतिष्ठापद्धति का उल्लेख होता तो उस दशा में किसी न किसी विद्वान् के द्वारा, किसी न किसी आचार्य के द्वारा उस प्रकार की प्रतिष्ठा पद्धति का अनुसरण - अनुकरण किया जाता, किन्तु उपलब्ध आगमों में तो वस्तुतः प्रतिष्ठा करवाने अथवा प्रतिष्ठा-पद्धति का कहीं पर नाममात्र के लिए भी उल्लेख नहीं है । इस प्रकार की स्थिति में श्रमण भ० महावीर के विश्वकल्याणकारी एवं मूलत: मुक्तिप्रदायी एकमात्र प्राध्यात्मिकता से ही प्रतप्रोत प्रशस्त पथ पर अग्रसर होने वाले धर्मरथ को बाह्याडम्बर की सम्मोहक धुन्ध से प्राच्छादित अनागमिक प्रतिकूल दिशागामी विपथ पर दौड़ाने के इच्छुक द्रव्यपरम्पराओं के कर्णधारों के पास, वस्तुतः देखा जाये तो निर्वाणकलिका का अन्धानुकररण करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय भी तो नहीं था ।
बाह्याडम्बर के घटाटोप से प्राच्छादित अनागमिक विपथ पर द्रव्य परम्पराओं द्वारा द्रुत गति से दौड़ाये जा रहे धर्मरथ को पुनः आगम प्रदर्शित आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत प्रशस्त पथ पर मोड़ देने के पुनीत लक्ष्य से लोंकाशाह
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