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________________ ८२४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ एवमनेन विधिना श्रीमन्तभगवन्तमधिवास्य गन्धधुपपुष्पाद्यधिवासितायां स्वास्तीर्णायां विद्रुमशय्यायां शाययेत् । वर्मजप्ताऽरक्तवाससा चाच्छादयेत् । __ तदनु सप्तगीतवाद्यमंगलादिना चतुर्विघश्रमणसंघेन सह । ततः प्रभातायां शर्वर्यामुदये प्राप्ते वासरे सूरिः प्रतिष्ठांकुर्यात् । उक्त च इय विहिणा अहिवासेज्ज देवबिम्ब निसाए सुद्धमणो । तो उग्गयम्मि सूरे होइ पइट्ठासमारम्भो ।।१।। ॥ इति अधिवासना विधिः ।। ततः कांचित् कालकलां विलम्ब्य पूर्ववच्छान्तिबलि प्रक्षिप्य चैत्यवन्दनादिकं कर्म कृत्वा वस्त्रमपनीया विधवानायिकाया: समर्पयेत् । ततो रजतमयवर्तिका निहितमधुदिव्यया सुवर्णशलाकया अर्हन्मन्त्रमुच्चार्य ज्ञानचक्षुरुन्मीलयेत् ।। तथा चागमः - कल्लारणसलायाए महुघयपुण्णाए अच्छि उग्वाड़े। अण्णेण वा हिरण्णेण निययजहसत्तिविहंवेणं ।।२।। दृष्टिन्यासे च दृष्टेराप्यायननिमित्तं घृतादर्शदघी नि संदर्शयेत् । तदंनु योनेऽपि कोटिसहस्रावस्थानं वचनस्य स्वस्वभाषया परिणमनं रुग्वैरमारिदुर्भिक्षडमरादीनामभावः । अतिवृष्ट्यनावृष्टि न भवतः । इति कर्मक्षयोत्पन्नगुणान् जिनेन्द्राणां स्थापयेत् । ___ॐ नमो भगवते अर्हते घातिक्षयकारिणे घातिक्षयोत्पन्नगुणान् जिने संस्थापयामि स्वाहा । घातिकर्मक्षयोत्पन्न कादशातिशयस्थापनामन्त्रः ।। पश्चादाचार्यः स्वमन्त्रोच्चारपुरस्सरं प्रासादं गत्वा विघ्नानुत्साद्य रत्नादिपंचकं विन्यसेत् । तत्र पूर्वस्यां वचं ...... .......... । (पत्र २२) इस प्रकार लगभग ७७ पृष्ठों की कृति "निर्वाणकलिका' में प्रतिष्ठा पद्धति का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, पौर्णमिक गच्छ के संस्थापक प्राचार्य चन्द्रप्रभसूरि आदि अनेक क्रियोद्धारकों ने समय-समय पर क्रियोद्धार करते समय, "निर्वाणकलिका" में उल्लिखित प्रतिष्ठा पद्धति अथवा विधि के कतिपय उन विधानों को अमान्य घोषित कर दिया जो उन्हें श्रमणाचार अथवा जैन संस्कृति के मूल सिद्धान्तों से नितान्त प्रतिकूल प्रतीत हुए। समय-समय पर किये गये उन क्रियोद्धारों के अनन्तर नवीन प्रतिष्ठा पद्धतियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। पौर्णमिक, आगमिक, प्रांचलिक आदि कतिपय गच्छों के प्राचार्यों ने अपनी-अपनी समाचारो में यह नियम बना दिया कि प्रतिष्ठा सम्बन्धी ... .... . . .... ......... ... .. .... .... .... ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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