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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ १२वीं शताब्दी तक श्रमण भगवान महावीर के चतुर्विध धर्मसंघ का गले का हार कैसे बनी रही। विक्रम की बारहवीं शताब्दी में पौर्णमिक गच्छ के संस्थापक आचार्य श्री चन्द्रप्रभसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार के अनन्तर अनेक गच्छों ने निर्वाणकलिका की उपेक्षा करना प्रारम्भ किया। पौर्णमिक गच्छ की भांति ही आगमिक गच्छ, अंचल गच्छ, तपागच्छ आदि अनेक गच्छों ने निर्वाणकलिका का बहिष्कार कर नवीन प्रतिष्ठा पद्धतियों का निर्माण किया। प्रतिष्ठा को द्रव्यस्तव घोषित करते हुए पौर्णमिक गच्छ ने तो अन्तिम निर्णय के साथ इस प्रकार का विधान कर दिया कि प्रतिष्ठा केवल श्रावक ही करे। पंच महाव्रतधारी साधु के लिए प्रतिष्ठा का कार्य करना श्रमणाचार के विरुद्ध है अतः कोई भी साधु प्रतिष्ठा कार्य न करे। तपागच्छ के आचार्य जगच्चन्द्रमूरि ने भी उनके समय में प्रचलित प्रतिष्ठापद्धतियों में सुधार करके एक नवीन प्रतिष्ठाकल्प का प्रारूप तैयार किया जिसे कालान्तर में तपागच्छ के आचार्य गुग्गरत्नसूरि और उनके शिष्य श्री विशालराज ने व्यवस्थित कर प्रतिष्ठाकल्प को अन्तिम रूप दिया । उसमें गुणरत्नसूरि ने स्तुतिदान, मंत्रन्यास, प्रतिमा में जिनेश्वर का आह्वान, मन्त्र द्वारा दिग्बन्ध, नेत्रोन्मीलन (प्रतिमा के नेत्रों में स्वर्णशलाका से अंजन करना) और देशना अर्थात् प्रतिष्ठाफल प्रतिपादक उपदेश करना-इन छः कार्यों का पंच महाव्रतधारी श्रमण अथवा प्राचार्य के कर्तव्य के रूप में और प्रतिष्ठा सम्बन्धी शेष सभी कार्यों का श्रावक के कर्तव्यों के रूप में विधान करते हुए उपयुल्लिखित गाथा के अनन्तर निम्नलिखित रूप में व्यवस्था की।
__ "एतानि गुरुकृत्यानि, शेषाणि तु श्राद्धकृत्यानि इति तपागच्छ-समाचारी वचनात् सावधानि कृत्यानि गुरोः कृत्यतयाऽत्र नोक्तानि ।"
.. खरतरगच्छीय लघु शाखा के आचार्य जिनप्रभसूरि ने तो अपनी कृति विधिप्रपा (पृ०६८) में प्रतिष्ठा विषयक इस प्रकार का विधान किया :
"तदनन्तरमाचार्येण मध्यमांगुलीद्वयोर्वी करणेन बिम्बस्य तर्जनीमुद्रा रौद्रदृष्ट्या देया। तदनन्तरं वामकरे जलं गृहीत्वा आचार्येरण प्रतिमा आछोटनीया । ततश्चन्दनतिलकं, पुष्पपूजनं च प्रतिमायाः ।"
किन्तु कालान्तर में आचार्य जिनप्रभसूरि द्वारा निर्मित विधि-प्रपान्तर्गत प्रतिष्ठा पद्धति के आधार पर लिखी गई खरतरगच्छीय प्रतिष्ठा पद्धति में, मूर्ति पर सचित्त जलाच्छोटन, प्रतिमा के चन्दन का तिलक लगाने और पुष्पों से पूजन करने आदि सभी प्रकार के सावध कार्य श्रावक के द्वारा ही निष्पन्न किये जाने का विधान करते हुए सुधार किया है :
"पछइ श्रावक डावइ हाथिइं प्रतिमा पाणिइं छांटइ।"
इतना सब कुछ हो जाने के उपरान्त भी विक्रम की १५वीं शताब्दी तक जैन संघ में प्रतिष्ठा करवाना “साधु का ही कर्त्तव्य है अथवा श्रावक का ही" इस प्रश्न को
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