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अर्थात् - स्तुतिदान याने देववन्दन करना, स्तुतियां बोलना १, मन्त्रन्यास अर्थात् प्रतिष्ठाप्य प्रतिमा पर सौभाग्यादि मन्त्रों का न्यास करना २, नेत्रोजिन का प्रतिमा में आह्वान करना ३, मन्त्र द्वारा दिग्बन्ध करना ४, मीलन यानि प्रतिमा के नेत्रों में सुवर्णशलाका से अंजन करना ५, प्रतिष्ठाफल प्रतिपादक देशना ( उपदेश ) करना ६ । प्रतिष्ठाकल्प में उक्त छः कार्य गुरु को करने चाहिये ।
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २
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अर्थात् - इनके अतिरिक्त सभी कार्य श्रावक के अधिकार के हैं । यह व्याख्या निश्चित होने के बाद सचित्त पुष्पादि के स्पर्श वाले कार्य त्यागियों ने छोड़ दिये और गृहस्थों के हाथ से होने शुरू हुए । परन्तु पन्द्रहवीं शती तक इस विषय में दो मत तो चलते ही रहे, कोई प्राचार्य विधिविहित अनुष्ठान गिन के सचित्त जल, पुष्पादि का स्पर्श तथा स्वर्ण मुद्रिकादि धारण निर्दोष गिनते थे, तब कतिपय सुविहित प्राचार्य उक्त कार्यों को सावद्य गिन के निषेध करते थे । इस वस्तुस्थिति का निर्देश प्राचारदिनकर में नीचे लिखे अनुसार मिलता है :
"ततो गुरुर्नवजिनबिम्बस्याग्रतः मध्यमांगुलीद्वयोर्श्वीकरणेन रौद्रदृष्ट्या तर्जनीमुद्रां दर्शयति । ततो वामकरेण जलं गृहीत्वा रौद्रदृष्ट्या बिम्बमाछोटयति । केषांचिन्मते स्नात्रकारा वामहस्तोदकेन प्रतिमामाछोटयन्ति । ( चारदिनकर, २५२ ) ।"
पन्यास श्री कल्याणविजयजी ने मध्ययुगीन इतिवृत्त के आधार पर "निर्वाणकलिका" के विषय में जो महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है, उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि निर्वाणकलिका का वस्तुतः श्रमण भ० महावीर द्वारा प्रवर्तित धर्मतीर्थ से, सर्वज्ञप्ररूपित आगमों से और यहां तक कि जैन संस्कृति से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं, यह तो जैनेतर कर्मकाण्डियों के पदचिह्नों पर चलने वाले किसी चैत्यवासी आचार्य अथवा विद्वान् की कृति है । इस तथ्य से तो प्रत्येक विज्ञ जैनधर्मावलम्बी भली-भांति अवगत ही है कि शिथिलाचार में एडी से चोटी तक निमग्न चैत्यवासी परम्परा ने ही जैन धर्म के वास्तविक मूल विशुद्ध स्वरूप में अनेक प्रकार की विकृतियां एवं अशास्त्रीय परिपाटियां प्रचलित कीं, जिनकी कि छाप अद्यावधि जैनसंघ पर विविध विधानों के माध्यम से विद्यमान है ।
यह बड़े आश्चर्य और दुःख की बात है कि निर्वारणकलिका जैसी नितान्त आगम विरुद्ध एवं श्रमणाचार से पूर्णतः प्रतिकूल कृति शताब्दियों से विक्रम की
निबन्ध - निचय, पं. श्री कल्याण विजयजी गरिण, निबन्ध सं. २२ श्री कल्याणविजय शास्त्रसंग्रह समिति, जालोर द्वारा ई. सन् १९६५ में प्रकाशित, पृष्ठ सं. २०७ से २१० ।
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